कविता-कानन
बहनों की दुआ
हाँ मैं तुमसे दूर हूँ
किसी प्रवासी पक्षी की तरह
परदेसी बनकर रह गया हूँ
परिस्थिति और रोज़गार की विभीषिका में
स्नेह की दो बूंदों के लिए
भटकता हूँ मृग मरीचिका में
पर सुन लो नालायकों
तुम हो मेरे आस पास
यहीं मेरे इर्द गिर्द मंडराती
खिलखिलाती सी
किताबों में आँखें गड़ाए भिनभिनाती सी
पल पल महसूसता हूँ
तुम्हारी दुआएं अपनी भलाई में
तुम्हारी शक्ति अपनी कलाई में
तुम्हारी ख़ुशी अपनी कामयाबी में
तुम्हारीआशा अपनी सेहतयाबी में
मज़हबी तअस्सुब के संघर्षों में
जब चकराने लगता है मन
विवेक पर छा जाते हैं अंधकार के बादल
तब तुम्हारा तिलक मेरा रहबर बनता है
हमारा रिश्ता मोहताज नहीं
रक्त की पहचान का
यह अलामत है
हैवानियत में बची आदमीयत की
इण्डिया में खो रही हिन्दुस्तानियत की
कर्त्तव्य से न डिगूँ
दुआएं जारी रखना
सुना है दरबार-ए- परवरदिगार में
जल्द क़ुबूल होती है
बहनों की दुआ………….
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तुम आइना हो मेरी आत्मा का
तुम्हारी स्मृति
संतप्त मन के लिए
पहले फुआर की छुअन
दिशाहीन पथिक के लिए
पूरब का पता देती
सूरज की पहली किरन
और सबसे बढ़कर
मेरे कल्पना शिशु का
पसरा सुवासित आँगन
तुम्हारा रूप
प्राणशक्ति है
इन बेज़ुबान आँखों की
तुम्हारी उदासी
बेचैन करती है मुझे
सच कहूँ प्रिये
तुम्हें मनाना चाहता हूँ
पर बेबस
मिथ्याभिमान के जाल में पड़ा
साधिकार मन
कर्त्तव्यहीन तन
जानता हूँ
मुझे बढ़ाने में
पल पल रीती हो तुम
तुम्हारे निष्कपट समर्पण ने
आकार दिया है
मेरे वजूद को
ज़्यादा कुछ नहीं
तुम आईना हो मेरी आत्मा का
जिसमे संवरं जावेद बना हूँ.
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एक दिन आएगा
एक दिन आएगा
जब सूख जाएँगी स्याहियाँ
तमाम क़लमों की
लेखनी मोहताज होगी
सत्ता की मेहरबानियों की
क़सीदे पढ़े जायेंगे
शहर के नक्कारख़ानों से
एक दिन आएगा
जब बुद्धिजीवी अनुचर होंगे
कठपुतलियों के
सिंह बंधक बनेंगे
फरेबी भेड़ियों के
नायिका के लिए हिरन चाल की उपमा
मिटा दी जाएगी किताबों से
क्योंकि एक दिन आएगा
जब समाज अख़्तियार कर लेगा
भेड़ों की चाल
नारों की ढाल
और तब
कवि सुनाना चाहेंगे क्रांति के गीत
मगर सुना नहीं पाएंगे
वैतालिक जगाना चाहेंगे समाज को
मगर जगा नहीं पाएंगे
ऐसा नहीं कि उनके पास
टोटा है कल्पना शक्ति का
या न्यूनता है भावों विचारों और शब्दों की
मगर बोलने के लिए
एक अदद ज़बान की ज़रूरत होती है.
– जावेद आलम ख़ान