गीत-गंगा
ये दिल आशना-सा कहाँ लेके जाएँ
भटकती हुई-सी सभी वीथिकाएँ
ये दिल आशना-सा कहाँ लेके जाएँ
न शीशे-सी नदियाँ, न सौंधी-सी मिट्टी
न पढ़ती वे आँखें न वो मन की चिट्ठी
न पानी के धारे हरित वो किनारे
कहाँ वो शिकारे वे ठंडी हवाएँ
ये दिल आशना-सा कहाँ लेके जाएँ
न नूरे-नज़र है न आँखों में पानी
न शीशा-ए-दिल की वो ख़ुशबू पुरानी
उबलता समां है पिघलती फ़िजा है
बरसती कहाँ हैं ये जाकर घटाएँ
ये दिल आशना-सा कहाँ लेके जाएँ
कि सब ख़्वाहिशें छोड़ आएँ हैं सोती
वे सब चाहतें अब नहीं अश्क़ बोती
बहुत ही सुकूँ है तथागत हुआ मन
कि अब लिख रही हैं वे नूतन ऋचाएँ
ये दिल आशना-सा कहाँ लेके जाएँ
*********************
सांवरिया घन छम-छम बारिश
बदरी के संग लिपट रहा है
सांवरिया घन छम-छम बारिश
शर्म से सूरज पलट रहा है
सांवरिया घन छम-छम बारिश
पत्ते-पत्ते बूटे-बूटे
नहा रहे हैं खेत, बाग़, वन
गागरिया-सी उलट रहा है
सांवरिया घन छम-छम बारिश
चिंहुक उठा है चातक प्यासा
पकड़ रही बूदें अभिलाषा
जल धारा में सिमट रहा है
सांवरिया घन छम-छम बारिश
धुला-धुला-सा मन आँगन है
धुला-धुला तन छत दीवारें
घुला-घुला नभ चमक रहा है
सांवरिया घन छम-छम बारिश
युगों-युगों से बदरी प्यासी
सदियों से प्यासा बादल मन
प्यास बुझाता भटक रहा है
सांवरिया घन छम-छम बारिश
मदिर-मदिर-सी हवा बही है
मृदुल-मृदुल-सा हुआ है मौसम
कौन दिशा में अटक रहा है
सांवरिया घन छम-छम बारिश
छेड़-छेड़ कर जाता पानी
हँस-हँस नाच रही पंखुरियाँ
अब कलियों में चटक रहा है
सांवरिया घन छम-छम बारिश
– डॉ. पुष्पलता