कविता-कानन
प्रेम में डूबी हुई स्त्री
अभी-अभी
एक जोड़ा उतरा है
पार्क के एकांत में
जोड़े के आने से
हरहरा गयी है घास सूखी
शरमा कर
लड़की के गालों-सी
गुलाबी हो गई है
तांबई धूप
लड़के के मटमैले बालों को
बिखरा कर हवा बैठ गई है
तितली के परों पर
लड़की ने टिकाया है
जिस पेड़ के तने से
अपना सिर
उस पेड़ की टहनी पर
आकर बैठ गया है
समय
इस ठहरे हुए समय में
लड़की भूलना चाहती है
घर-बार, चूल्हा-चौका,
बर्तन भांडे, हाट बाज़ार,
रिश्ते-नाते, सब कुछ
केवल याद रखना चाहती है
गेंदे का वह फूल
जिसे लड़का
अपने खेत से तोड़कर लाया है
उसके लिए
इस ठहरे हुए समय में
बूंद-बूंद रिसता बादल
लौट रहा है पृथ्वी के पास
पल-पल छीजती हुई
एक नदी हो रही है
समुद्र में समाहित
दुनिया में
सबसे सुंदर होती है
प्रेम में डूबी हुई स्त्री
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नदी, पुल और हम
(1)
नदी के साथ-साथ
पले, बढ़े, खड़े हुए
नदी से सीखा
हाथ-पैर का हुनर
पानीदार हुए हम
हमारे पूर्वज पहुंचे थे
नदी की उंगली थामे
समुद्र तक
और अपने रक्त के साथ
लेकर आये थे नमक
जीवन में लय
नदी
शामिल रही हमारे
रोज के गुस्से व लाड़ में
तीज-त्योहार, मेले-उत्सव,
रीत-रिवाज़, शादी-ब्याह में
माँ, भाभी, बहन के
खुशी व रंज के
आँसुओं में शामिल रहा
नदी का पानी
प्रेमियों की आंखों में,
धोबी की हथेली,
माझी के गीत
गिरस्थी में घाट रहे
सम्मिलित
घर लौटने से पहले
हाथ मुँह धोना
नहीं भूला थका-मांदा दिन
नदी के तांबई पानी में
हर संकट के दिनों
ईश्वर से अधिक
भरोसा किया हमने
नदी पर
कि एक दिन नदी से
मांगा बालू, पानी और पत्थर
बनवाया एक सफेद पुल
जो आज तक खड़ा है
नदी और आदमी के बीच
(2)
रबर की तरह
नाजुक, मुलायम
नहीं होते हैं पुल
पर मिटा देते हैं
डर, कौतुक व
संघर्ष का मिथक
जो हमारे पुरखों ने
सौंपा था हमें
नदी से कमाकर
(3)
जब पार करते हैं हम नदी
तब हमारे साथ होता है
केवल पुल
नदी नहीं,
क्योंकि
मिथकों की तरह
हम गंवा चुके हैं
नदी को भी
(4)
नदी, केवल नदी नहीं
पहचान होती है नगर की
जैसे मुरना
पहचान थी/है
शहडोल की
शहर की
– डॉ. गंगाधर ढोके