गीत-गंगा
मोरपंखी सज गया तन
सुर मौसम के बदले,
बदला रूख हवाओं ने।
धरा फिर सजने लगी,
अनजानी चाहों में।
मन भटकने सा लगा है,
बंकिम हो गई चितवन।
मोरपंखी सज गया तन।।
इठलाता रहा दर्पण,
देख मुझको बार-बार।
सुंदरता का मर्म जाना,
चढ़ गया मुझ पर खुमार।
इंद्रधनुष खिंचने लगे हैं,
हो गया सतरंगी मन।
मोरपंखी सज गया तन।।
आवरण लज़्ज़ा के सिमटे,
कहीं गुम होने लगी।
भूलकर अस्तित्व अपना,
तुम में ही खोने लगी।
दीन दुनिया की खबर ना,
हो गई ऐसी मगन।
मोरपंखी सज गया तन।।
आँखों में है चिर-प्रतीक्षा,
है बेकली बेचैनियां।
प्यार में डूबी हूँ ऐसे,
जैसे कि इक जुगनिया।
श्वांस कंपित अधर कम्पित,
हुइ कैद हर धड़कन।
मोरपंखी सज गया तन।।
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सज रहे हैं पुष्प,
खुशबू ने किया श्रृंगार है।
रूप ने फैलाया दामन,
मैंने कसकर बाँध डाला।
सुरभित सजे कुन्तलों को,
श्रृंखला में है संभाला।
रतनारे नयनों में मोहक
कजरे की धार है।
सज रहे हैं पुष्प,
खुशबू ने किया श्रृंगार है।।
गदराया यौवन पुलकित,
रोम-रोम में है सिहरन।
कपोल अरुणिम हैं सलज्ज,
लरजते अधरों पे थिरकन।
गलहार को मादक-सी बाँहें,
मदिर उपहार है।
सज रहे हैं पुष्प,
खुशबू ने किया श्रृंगार है।।
हैं सुराही मद के प्याले,
ज्यों पूरी मधुशाला सजी।
पायलिया में सुर सजे हैं,
अब कर्धनी सरकन लगी।
वेणी केशों में सजे तो,
पल-पल त्यौहार है।
सज रहे हैं पुष्प,
खुशबू ने किया श्रृंगार है।।
– भगवती प्रसाद व्यास नीरद