कविता-कानन
सेतु कहाँ है!
जैसे उतरती है नदी पहाड़ से
एक क्षीण धारा के प्रवाह में
मैदान तक आते-आते
उसका पाट चौड़ा हो जाता है
ज़िन्दगी की कविता भी
उतरती है वैसे ही
मैदानी इलाके तक आते-आते
उसका पाट भी चौड़ा हो जाता है
चौड़े पाट पर लम्बे-लम्बे पुल बनते हैं
इस एक पुल के नीचे से
पचास ऐसी पहाड़ी नदियाँ
गुज़र जा सकती हैं
वह आदमी जो इस लम्बे पुल को
पार करते हुए
याद करता है इसी नदी को
जब पार किया था पहाड़ी पुल पर
लाना चाहता है
सागर को पहाड़ के पास
ताकि बनी रहे नदी में
निर्मलता और प्रवाह
कम हो जाये यों पसरना
कम हो जाये छिछलापन, उथलापन
कम हो जाये जगह-जगह
हाथी डुबौउल गहराई
कम हो जायें नावें बजरे
और कम हो जायें
नदी में बीच-बीच में धंसे
व्याख्या सिद्धांतों के खम्भे
और आलोचना के लम्बे पुल
जो सागर सेतु बन नहीं सकते
यही आदमी जो इस लम्बे पुल पर
नदी पार करने के नाम पर
हवाखोरी कर रहा है
पार कर लेगा नदी
कुछ बाँस-बल्लियों के सहारे
जैसे पार करते हैं पहाड़ी गाँव के
बच्चे इसी नदी को स्कूल जाने-आने में
पहाड़ और समुद्र
अगर पास आ गये तो फिर
क्या होगा मैदानों का
नदियाँ कहाँ पाट बढा कर फैलेंगी
कहाँ बनेंगे लम्बे-लम्बे पुल
और पुल पार करने के नाम पर
कैसे होगी नदी के ऊपर हवाखोरी
बिना नदी को छुए
मैदान सभ्यता के विस्तार हैं
पहाड़ संस्कृति के आगार हैं
सागर अनहद का तरल अवतार है
नदी द्रुत से मंद्र होते राग की झंकार है
इस मृग मरीचिका से
उस मरीचिका तक जोड़ता सेतु
बस मृग कुलांच से बनता है
अब कहाँ है मृग कुलांच सेतु!
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रेज़गारी
दुनिया तेज़ी से घूम रही है
जो फूल मुस्कराने को
ऊपर का होंठ दायें खींचता है
जब तक नीचे का होंठ
ऊपर वाले के पास दाँयें पहुँचे
पेरिस सरक कर पेकिंग की जगह
पहुँच जाता है
दबी हुई दूब की पत्तियाँ
जब तक कमर सीधी करके
फिर से खड़ी हों
सूरज सरक कर
टोक्यो से टोरेंटो पहुंच जाता है
मैं लगा हूँ पूरी ताकत से
उल्टी चाबी घुमा कर
दुनिया की धुरी में फंसी
कमानीदार स्प्रिंग की वाइंडिंग
खोलने में
ताकि पहले वाले एक घंटे की तरह
एक घंटा होने लगे
ताकि हम गिन सकें साठ सेकेंड में
एक मिनट और साठ मिनट में
एक घंटा
कम से कम ये रुपये वाला टंटा
न रह जाये कि देखते-देखते
एक रुपया आधा पैसा भी
नहीं रह गया
और कविगण मूल्यों की रेज़गारी
गिनते रह गये
काल और भूगोल की गुल्लकों को
उलट कर ज्ञान पीठ पर बिछी
धवल चाँदनी पर पालथी मारे
भूल-भूल जाते हैं बार-बार
तो गिनने लगते हैं तारे
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केकड़ा
देखो कैसी-कैसी चालाकियाँ आती हैं मुझे
घर से भागा
जीवन से भागा
जीवन कोई कंधे में पड़ा हुआ
गमछा तो था नहीं
जो फेंक देता
किसी नदी-नाले में
या टांग देता किसी
शमी वृक्ष की टहनी में
अर्जुन के गाण्डीव की तरह
वह तो चलता-फिरता
खाल का बोरा था
जिसके अन्दर मैं भी छिपा था
और वह भी
जैसे घुसे हों दो-दो घोंघा बसंत
एक ही शंखशिशु में
आपस में टकराते हुए
तिल-तिल बढ़ते
उसकी टकराहट भी शिथिल हो रही थी
और मेरे भी उसकी टकराहट से
बनी छोटी-सी गाँठ
गूमड़ बन गयी थी
दुख के बारे में कुछ पता तो नहीं था
लेकिन मुझे मेरी
चालाकियों ने बताया
सारे दुख की गठरी है ये गूमड़
हिला-जुला कर नोंच कर
अलग कर लिया
और सीधा आया
समुद्री डेल्टा की ओर
इस सुनसान मे एक पतली धारा
भागी जा रही थी
ठीक हुगली की ओर
और हुगली सागर के क़रीब थी
देर नहीं लगनी थी सागर मिलन में
पतली धारा के किनारे
उगे थे घने झाड़-झंखाड़
जिसमें से आक और धतूरे को
नाम से पहचानता था
लेकिन वे मेरे काम के नहीं थे
एक उनके पास ही
चौड़े और बड़े पत्ते वाला पादप भी था
जिसका नाम नहीं मालूम था
उसके पत्ते का दोना बनाया
उसमें दुखों का गूमड़ रख कर
पतली तेज धार मे प्रवाहित कर दिया
पता नहीं कहाँ से
आँखों के आभास लोक में से
आकर कुंती ने मेरी ओर
वितृष्णा से देखा
पतलीधार दोने को हुगली में ले गयी
हुगली सागर में
अपनी चालाकियों का जायजा लेने
जब मैं सागर तट पर गया
तो अजीब नज़ारा था
एक विशालकाय केंकड़ा
मुझे पहले से दबोचे बैठा था
और मैं एक फटा हुआ टाट का बोरा
उसके सामने बिछा था
– बजरंग बिश्नोई