गीत-गंगा
नवगीत- सापेक्ष निरपेक्ष
तुम पग-पग पर
सापेक्ष रहो
मुझसे
कहते
निरपेक्ष रहो
सूरज की गर्मी को रोको
रोटियाँ धूप में जा सेंको
तुम धरती के हर कोने में
अपनी लालच के पर फेंको
मुझको कर खड़ा
चतुष्पथ में
तुम
राजमहल में
एक्ष रहो
पल-पल तुमने बदला पाला
जपते हो मंगल की माला
तुम गीता की कसमें खाकर
पढ़ते हो छुप-छुप मधुशाला
मेरी शुचिता पर
दाग कहो
तुम
भले अधर्मी
म्लेक्ष रहो
तुम सुविधा के अनुप्रास रहे
हम द्विविधा के संत्रास रहे
हम यमक लगाये रोटी में
तेरी करुणा के दास रहे
मेरी उपमा से
रूपक ले
तुम
नव पर नव
उत्प्रेक्ष रहो
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नवगीत- किलकारियों के बोध से
किलकारियों के
बोध से
बिखरे हुए
कुछ स्वप्न
शायद सत्य हों
देह की स्फूर्ति
दुगुने
जोश से
इस अरुणिमा में
सैकड़ों आदित्य हों
हारती द्विविधा
पनपती
आँख की परिणति
चमकते
जुगनुओं में,
रेत से सूखे
धरा के
गर्भ की गहराई
कुछ
गीले कुओं में
भर रहीं कुछ
स्वाति
की बूँदें
हृदय में
जीवनी औचित्य हो
पेड़ से शाखों में
शाखों से
जनमती
पत्तियाँ
पत्तियों से फूल आए,
झूलते उन फुन्गियों में
लटकते
कुछ फल
हमारी
धमनियों में लहलहाए
ऐ हवा! तू चल
जरा
बल खा
जगा कर थिरकनें
अब नृत्य हों
– अशोक शर्मा कटेठिया