कविता-कानन
दोगे न मेरा साथ
मैंने चाहा है
हमारा साथ हो
धूप और छाँव-सा
हरियाली और गाँव-सा
मैंने चाहा है
तुम्हारी अंगूठी उतारकर
तुम्हारी उँगली में
दूब का छल्ला पहनाऊँ
मैंने चाहा है
तुम्हारे बालों में सजा दूँ
सरसों का फूल
गेहूँ की बालियों को मसलकर
तुम्हारे साथ चख लूँ
गेहूं के कच्चे दानों का स्वाद
मैंने चाहा है
झरनों-से बहते हुए पानी को
तुम्हारी अंजुली में भरकर पी लूँ
मैंने चाहा है
तुम्हारी गोद में सर रखकर
गीले बालों से टपकती बूंदों को
बहने दूँ अपने माथे से होकर
अपने होठों तक
और पलकों को बंद रखकर साँझ तक
महसूस करूँ तुम्हारी मौजूदगी
तुम बताओ
दोगे न मेरा साथ…….?
******************
तुम नहीं आये
मैं खड़ा रहा देर तक
देखता रहा
आसमां को नीले से नारंगी हो जाने तक
सुहानी हवा के
शीतल हो जाने तक
मेरे हाथों में
गुलाब के सूख जाने तक
मेरी आँखों से
सारा पानी बह जाने तक
मेरे यक़ीन की
बर्फ पिघल जाने तक
उम्मीद से लेकर
इंतज़ार की हद तक
मेरे मन में
शेष थी मिलन की आस
पर तुम नहीं आये।
******************
मेरे चुम्बन की तरह
मैं
झोकों को तेरे स्पर्श-सा
धूप को तेरी हथेलियों-सा
ठण्डक को तेरी छुअन-सा
फूलों को तेरी महक-सा
पंछियों को तेरी चहक-सा
गगन को तेरे आँचल-सा
बादलों को तेरे घूँघट-सा
चाँदनी को तेरी बाहों-सा
और तनहाई को तेरे अहसास-सा
महसूस करता हूँ।
और चाहता हूँ
तू महसूस करे
तेरे माथे पर गिरी बारिश की पहली बूँद को
मेरे चुम्बन की तरह।
– अशोक कुमार