कविताएँ
ईश्वर
(एक साक्षात्कार में बिपाशा बसु ने बताया कि संघर्ष के दिनों में वे आत्म-रक्षा के लिए अपने पर्स में एक हथौड़ी रखती थीं)
किस तरह रच रहे हो तुम ये संसार
हे ईश्वर!
तुम भी तो पुरुष ही हो
जानते हो तुमसे,
हम पुरुषों से किस कदर
खौफ खाती हैं स्त्रियाँ
एक अप्रत्याशित आक्रमण
कभी भी हो सकता है उन पर
इस डर से भयभीत होकर
रखती हैं पर्स में हथौड़ी
कोई सलाह देता तो रख लेतीं मिर्च-पाऊडर
और बाज़ार बनाकर बेचता
कोई स्प्रे, कोई धारदार छोटा चाकू,
कोई करेंट पैदा करने वाला यंत्र
या सरकारें ज़ारी करतीं
ढेर सारे हेल्पलाइन नंबर
किस तरह रच रहे हो तुम ये संसार
हे ईश्वर!
तुम जो कि बेशक पुरुष हो
और हमसे यानी तुमसे भी तो
किस कदर डर रही है आधी-आबादी
ख़्वाब में भी डरती है अनजाने हमलों से
अकेले हो या भीड़ में
हर जगह हमले का डर उनके ज़ेहन में
रहता है पैवस्त
और तुम मस्त
रचवाते हो ऋचाएं…आयतें
सबकी भलाई की खोखली बातें
कब तक ग्रंथों में कैद रखी जाती रहेंगी?
कब तक??
हे ईश्वर…!!!
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इत्ती- सी ख़ुशी
कितना कम चाहिए
नून, तेल, गुड़ के अलावा
फिर भी मिल नहीं पाता
मुँह बाये आ खड़ी होती है
लाचारी-सी हारी-बीमारी
डागदर-दवाई में चुक जाती है
जतन से जोड़ी रकम
जबकि हमारी इच्छाएँ हैं कितनी कम
कितना कम चाहिए
रोटी और कपड़े के अलावा
फिर भी मिल नहीं पाता
आ धमकता वन-करमचारी
थाने का सिपाही
या अदालत का सम्मन
और हम बे-मन
फंसते जाते इतना
कि छूटते इनसे बीत जाती उमर
दीखती न मुक्ति की कोई डगर
– अनवर सुहैल