गीत-गंगा
शव समाज का जल रहा
शव समाज का जल रहा,
मानवता पर गाज।
व्यथा मुनादी कर रही,
मर ही गया समाज।।
नुचते नित चौराहों पर,
गौरेया के पंख।
बजा रहे हैं पहरुए,
छद्म धर्म के शंख।।
हाय! शक्ति संग शक्ति से,
होने लगे अकाज।।
चौखट पर की साँकलों
के कर ढीले बंध।
आबादी ने अर्ध मिल,
खायी थी सौगंध।।
अपने हित आकाश में,
भरनी है परवाज।।
मानवता के भेष में,
कामुकता के गिद्ध।
नित्य नपुंसक कर रहे,
पौरुष अपना सिद्ध।।
नोंच रहे बे-खौफ हो,
बोटी-बोटी बाज।।
वही मुकदमे पैरवी,
फिर-फिर वही दलील।
खंड-खंड कर अस्मिता,
होगी पुन: जलील।
हाज़िर होंगे साक्ष्य फिर,
तजकर लोक-लिहाज।।
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दीन स्थिति वाम क्यों
नीतियाँ अनगिन बनीं तब,
शून्य क्यों परिणाम है।
तंत्र का है अंग फिर क्यों,
दीन स्थिति वाम है?
हो गया है देश विकसित,
भूख विकसित साथ है।
छू रहा ऊँचाइयों का,
व्योम सारा हाथ है।
शब्द सांसत में पड़े हैं,
कौन लिपि लिख दे व्यथा?
साल बदले पर न बदली,
दीन की किंचित कथा।।
प्रश्न अनसुलझा वही तम,
भूख आठो याम है।
तंत्र का है अंग फिर क्यों,
दीन स्थिति वाम है?
जेठ की है धूप ओढ़े,
शीत का कुहरा घना।
स्याह जीवन लेख अनपढ़,
बाँचता है अनमना।
पिंडलियों तक स्वेद श्रम का,
अनवरत है बह रहा।
रोटियों का स्वप्न एकल,
भग्न होकर ढह रहा।।
हाकिमों से पा सका श्रम
का उचित कब दाम है।
तंत्र का है अंग फिर क्यों,
दीन स्थिति वाम है?
चल रही है जन्म से ही,
पेट की रस्साकशी।
भूख ने अनुबंध आँतों
से किया है आपसी।
देह पिंजर बोझ भारी,
लड़खड़ाकर ढो रहा।
शून्य सारे भाव मुख पर,
न हँस रहा न रो रहा।।
हड्डियाँ बजने लगीं हैं,
देह ढीला चाम है।।
तंत्र का है अंग फिर क्यों,
दीन स्थिति वाम है?
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किसने बबूल रोपे
मत्सर विचार दिल में, हैं भेदभाव पाले।
कटुता बना रही है, दृष्टव्य बैर जाले।।
सौहार्द है विखंडित, देखो चमन जला है,
ओढ़े नकाब सच का, क्या झूठ की कला है।
कारीगरी ग़ज़ब की, दे तंत्र की दुहाई,
खोदी हृदय-हृदय में, आवाम मध्य खाई।
गणतंत्र की जुबां पर, डाले अदृश्य ताले।
कटुता बना रही है, दृष्टव्य बैर जाले।।
जिस पथ प्रसून खिलते, किसने बबूल रोपे,
लगकर गले हमारे, खंजर सखे हैं घोपे।
सद्भावना प्रताड़ित, मनभेद हो गया है,
बँधुत्व इस वतन का, क्यों आज खो गया है।
यह देश हाय सौंपा, क्यों आग के हवाले।
कटुता बना रही है, दृष्टव्य बैर जाले।।
मुख है मलिन मही का, गुमसुम गगन थमा है,
अवसाद मेदिनी के, कण-कण हुआ जमा है।
संदेश प्रेम का ले, पवमान क्यों न चलता,
विद्रूप यह समय है, नित नव्य बैर पलता।
हर एक जन वतन का, अपना हृदय खँगाले।
कटुता बना रही है, दृष्टिव्य बैर जाले।।
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भाव मन के सब उपासे
नोंक है टूटी क़लम की,
भाव मन के सब उपासे।
चीख का मुखड़ा दबा है,
और सिसकती टेक है।
शब्द हैं बनवास पर,
शून्यता अतिरेक है।
सर्जना का क्या सुफल जब,
गीत के हों बंध प्यासे।।
छप रहे हैं नित धड़ाधड़,
पृष्ठ हर अखबार में।
क्षत-विक्षत कोपल मिली है,
फिर भरे बाज़ार में।
और फिर हम हिन्दू-मुस्लिम
के बजाते ढोल ताशे।।
दूर हैं पिंडली पहुँच से,
ऊँचे रोशनदान हैं।
कैद दहलीज़ों के भीतर,
पगड़ियों की शान हैं।
जन्म पर जिनके बँटे थे,
खोंच भर भी न बताशे।।
प्रश्न तुझसे है नियंता,
क्यों अभी तक मौन है।
बिन रज़ा पत्ता न हिलता,
बोल आखिर कौन है।
मरघटी मातम न दिखता,
छाये क्या ऊपर कुहासे!
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उम्मीदों के भारी फिर से पाँव
उम्मीदों के कैसे होंगे,
भारी फिर से पाँव।
धँसी आँख ज़िंदा मुर्दे की,
मिली पेट से पीठ।
आज़ादी भी प्रौढ़ हो चली,
हुई भूख अति ढीठ।
बंजर धरती बनी बिछौना,
सिर सूरज की छाँव।।
कड़वा तेल नहीं शीशी में,
ख़त्म हो गया नून।
दो टिक्कड़ अँतड़ियाँ माँगें,
और है गीला चून।
जा मुंडेर से कागा उड़ जा,
लेकर कर्कश काँव।।
मौला मेरे रख दो काला,
पथवारी ताबीज़।
गाँव की मुनिया आ पहुँची है,
यौवन की दहलीज़।
पहन मुखौटे फिरें भेड़िये,
कब लग जाए दाँव।।
– अनामिका सिंह अना