कविता-कानन
एक अंतहीन यात्रा
हम रेगिस्तान- सी बंजर मान चुकी ज़मीन से निकले
और तुम्हारे शहर आ गए
हमें समझाया गया था,
यहाँ हर किसी के लिए दो जून की रोटी
और रात को बियाबान से बचने की जगह मिल जाती है,
और हमने छाती ठोककर अकड़ में यहाँ भटकना मंज़ूर कर लिया।
जब- जब शहर को बनाने- सजाने की कवायद हुई
हमारे हज़ारों हाथ
छैनियों- हथोड़ियों से इतने सख़्त हुए और इस क़दर छिले गए,
कि हमें लगा,
हाथ पर कुछ अच्छी रेखाएँ बन रही हैं
और हम मुस्कराकर,
इन हथेलियों को और काट देना स्वाभाविक मान बैठे।
कुछ उतना ही गाँव भीतर गाँव
हम सबके शहर में सहमता हुआ अकुलाता और खोता रहा
और हमने यहाँ मान लिया,
कि हम अब शहर वाले बन चुके हैं,
सो, गाँव जाकर भी हमें यहीं लौट आना रास आया।
दरअसल, हम सब चूके जहाँ,
वहाँ अट्टालिकाएँ अट्टहास करने लगी थीं,
पर ये धूप इतनी तेज थी गगनभेदी बुर्ज़ों को देखने में
कि हमने स्वयं का अंधा हो जाना तक
फ़कत बेपरवाही में स्वीकार कर लिया।
लिहाज़ा, कुछ उतना ही शहर पास होकर हम सबों से दूर बैठा रहा
और संगदिल सरकार की ज़िद भी उतनी रही,
कमोबेश जितना हम उसी गुमान में
गाँव का होकर भी तुम्हारे शहर को ‘अपना’ कहने लगे थे।
तुम तो सरकार हो,
तुम्हारी साख़ कब- कहाँ इस क़दर गिरती है,
जितना बकायदा एक आपदा ने
तुम्हारी मोटी चमड़ी पर चिकोटी काटकर कहना चाह रही है,
पर, तुम तो संभलने लगे हो
ख़ुद को बेग़ैरत संभालने जितना
जहाँ दुःख, रंज, शिकायत, भूख, बीमारी, बेबसी
सबके अपने निजी नियामक सिद्ध हैं
तुम्हारी फाइलों के नीचे दबकर।
कहो, किस विधान में तुमने
हम सबों को कीट- पतंग तक माना,
और कौन- सी ऐसी मजबूरियाँ रही थीं
जो डरे हुए इन क़दमों को
सूने सैकड़ों किलोमीटर प्रस्तरों का ये ठौर दिया है!
सिसकना जब घर से निकलकर छूट चुका था,
क्यों फिर घर लौट जाने के लिए
तुम्हारी मौन सरकार सिखाने को ज़िद लिए बैठा है!
वो कौन- सा इल्म है इन नीतियों में
जहाँ तुम्हारा ‘धर्म’ उन्हीं हमारे बनाए घरों में सुस्त- सुरक्षित है,
और बेसुध पड़ चुके दुधमुँहे तक को
इस काली, तपती, लंबी अनजान सड़कों, पटरियों- पत्थरों पर धकेल चुका है!
जो सब पैदल निकल पड़े हैं
उस सपाट- लंबी सड़क पर
कहो, सरकार ने जिसे कभी आमजन के लिए खोला था!
कहो, कैसे सफ़र का इसे मैं कोई नाम दूँ,
जहाँ हमारे सिवा कोई नहीं,
और एक तुम और तुम्हारी नीतियाँ हैं
जो ये अंतहीन यात्राएँ दे रहे हैं।
मुझे कहो सरकार!
और कितनी बहुमंज़िली इमारतें बनाकर देनी हैं,
जिनमें तुम महफूज़ रह सको
कि कोई तो सटीक रणनीति
जहाँ शिद्दत से बनायी जा सके कभी?
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मेरी तुम्हारी उसकी बात
सब उम्मीद में थे,
मैं ज़मीन फोड़कर निकलूंगा
कि मुझे इस देश में
सब कुछ हरा करने की ज़िम्मेदारी दी गयी थी।
मैं तब पैदा हुआ
जब छूने से सिर्फ़ प्रेम पसरता था
मगर यह कोरोना काल था
जब आत्मसम्मान सरकता रहा
और जीने की कोई तय शर्त नहीं थी।
एक कड़ी जिसने
जीवन और मृत्यु के बीच
सबको क़रीब ला खड़ा किया
उसमें पहले जैसा कुछ नहीं था।
और जिसे सबने सरकार माना
वो तैयार नहीं थी
मेरी तुम्हारी सबकी बात सुनने को
सो इसे बेवजह ख़बर बनाया गया हर ओर
और जो आयी नहीं नज़रों में
कि पैदल चलते हुए
मुझे तेज़ भूख भी लग सकती है,
सब इसकी बस प्रामाणिकता सिद्ध करें।
अब जबकि और कोई मुद्दा नहीं था
बिना चप्पलों के लंबी सड़क पर
प्रेम अपनी तरह की
अकेली बची हुई
आस था,
सब लौट आएंगे अपनी- अपनी ज़मीन पर,
जहाँ मेरा प्रेम भरसक भूख पर हमेशा भारी हो।
पर, सच स्वीकार करो
ये ‘आजतंत्र’ इसलिए मुझको स्वीकार्य नहीं
कि पेट की ऐंठन देखता हूँ, सोचता हूँ
प्रेम के भी बेहद क्रूर समय में मैं तुमसे मिला।
– अमिय प्रसून मल्लिक