कविताएँ
सूरज फिर भी उगेगा
सूरज फिर भी उगेगा
जब होंगे बादल,
ठंडी बारिश की बूंदें,
ना कोई तपिश और परछाई
मैं लिखूंगा,
तुम पढ़ना,
उजाला तब भी रहेगा,
सूरज तब भी उगेगा
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कलयुगी स्वर्ग
कॉर्पोरेट जगत में काम करने वाली
सॉफ्टवेयर इंजीनियर
सिनेमा के सुनहले पर्दे पर
अब भी पसंद करती है
उन मर्दों को
जो करते हैं वध
दुर्योधन, रावण और जयचंदों का
असल ज़िंदगी में उसका पति
ज़बरदस्ती करता है
अंग मर्दन
पश्चिमी वात्स्यायनों की तर्ज पर
कहता है-
“ओ बैबी डिंग–डोंग,
लेट्स सिंग अ सॉंग।”
दु:शासन नहीं है
कोई
राम भी तो नहीं है
ऐसा लगता है मानो जी रही हो
किसी मायावी लोक में
नहीं, शायद स्वर्गलोक में
जहां सभी मर्द इंद्र हैं
और करना चाहते हैं भोग
यहाँ कोई भूखा नहीं है,
लेकिन नंगे सभी है
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बैलगाड़ी
मियां–बीवी की बैलगाड़ी
बढ़ती चलती खड़–खड़,
घड़–घड़
उचकाले खाती,
धचक–धचक
पर टूट ना पाती जकड़बंदी
सूंघती राज़, बदलती कोण
लुढ़क–लुढ़क घरघराती
फटी एड़ियाँ ढूंढ़ती ठिकाना,
चढ़ती चढ़ाई, करती कारगुज़ारी
कभी भिड़ती तो कभी करती भंडाफोड़
लड़ती–झगड़ती, बिसूरती
और करती रहती हुलिया दुरुस्त
क्या फुटपाथ, सड़क, फ्लैट, डुप्लेक्स?
हठी राहगीर की लुटी-पिटी थकान-सी
कुछ फुटकर प्रेम-क्षणों को बाँट कर
आधे–अधूरे, बाट–जोहते, टोह–टाँचते
दो लोग, पर बने रहते
जीवन साथी
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क्रांति
पास जंगल तक पहुँच गयी आग,
क्या तुम सोये हो?
आदमखोर की नहीं सुन रहे आवाज़,
कहाँ तुम खोये हो?
नहीं कोई आने वाला
ना मीडिया, ना नेता
भूलो मत!
शोषित हो, शापित तुम
नहीं हो बस, प्रकृति पुत्र तुम
क्या इंतज़ार है?
सब जल जाने का।
दबी आत्मा के झुलस जाने का
वार्ता के मधुर गीत,
थे कब तुम्हारे ये मीत
गर रहोगे बेखबर,
तो खुद बन जाओगे ख़बर
इससे पहले कि जल जाए कुचला तन
जागना है, अब और नहीं जलना है
चलना है, अब और नहीं सलना है
जागो! अब क्यो तुम सोऐ हो?
आगे बढ़ो, क्यों तुम खोऐ हो?
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बिटिया
बिटिया बड़ी हो गयी
यार! चिंता बड़ी हो गयी ।
कोई योग्य वर हो तो बताओ ।
खाते-पीते घर का,
कोई भी चलेगा ।
बेटी सयानी है ।
उसकी क्या मर्जी,
लड़का कमाता हो, और क्या चाहिये ?
चलो हो गयी शादी,
भगवान का शुक्र है ।
आज तीन महीने हो गए ।
सब ठीक है ।
जमाई राजा
खाते हैं,
पीते हैं,
और पीट भी देते हैं ।
पर दोनों में प्यार बहुत है ।
– अमिताभ विक्रम द्विवेदी