कविताएँ
एक दुपट्टा
एक दुपट्टा पड़ा रहता है
यूँ ही किसी कुर्सी पर
कहीं बिस्तर पर
कि शायद काम आ जाये
ठण्ड की हल्की सुरसुरी में
या
दरवाजे पर हुई किसी की आहट पर
पर सिर्फ अहसास से नहीं हो पाता
सुरक्षा का प्रबंध
यूँ ही पड़ा रह जाता है दुपट्टा
न ठण्ड से बचा पाता है
न लोगों की नजर से
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भली औरत
सच बोलना सिखाया गया था मुझे भी
पर आपद धर्म के नाम पर
झूठ बोलती रही हूँ मैं
सामने खड़े आप्त-स्वकीयों को
आत्म रक्षा के लिए ताड़ना दी है मैंने
मात्र वचन पूर्ती के लिए सिंहासन छोड़ने का साहस
कभी भी नहीं कर पाई हूँ मैं
मेरा मन भी होता रहा है
बुरे रास्तों पर चलने का
ऐसे-वैसे, कैसे भी
खूब धन कमाने का
खूब पहनूं मैं फूलों के हार
खूब छपे मेरा नाम
सच कहती हूँ
यही चाहा मैंने सर्वदा, हमेशा
लेकिन मेरे मित्रों, मेरे स्वकीयों,
मेरे बुजुर्गों, मेरी संतानों ने
रोक दिए मेरे पाँव
मैं भली औरत तो कभी भी नहीं थी
किन्तु मेरे चारों ओर थे
ये सारे अद्भुत रक्षा कवच
और बचते-बचाते
डूबते-उतराते
आ ही पहुंची हूँ यहाँ तक
एक दीप्त-प्रदीप्त
भद्र महिला का चेहरा लिए
– अलकनंदा साने