कविता-कानन
अभाव में प्रेम के
प्रेम के वे पल
जिन्हें लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर बैठकर
बोया था हमने
बन्द आँख की नम ज़मीन पर
उनका प्रस्फुटन महसूस होता रहा
कॉलेज छोड़ने तक
संघर्ष की आपाधापी में
फिर जाने कैसे विस्मृत हो गये
रेशमी लिफाफों में तह किये वायदे
जो किये थे हमने नम बनाये रखने के लिए
तुम ही नही थीं दोषी प्रिये!
मैं ही कहाँ दे पाया भावनाओं की थपकी
तुम्हारी उजली सुआपंखी आकांक्षाओं को
जो गुम हो गया कैरियर के आकाश में लापता विमान-सा
तुम्हारी प्रतीक्षा भी क्यों न बदलती आखिर
प्रतियोगी परीक्षाओं में तुम्हें तो जीतना ही था
डिज़र्व करती थीं तुम
हम मिले क्षितिज पर
पाकर आखिर अपना अपना आकाश
हमने सहेज लिया उन उपेक्षित कोंपलों को
वफ़ा के पानी का छिड़काव कर
हम दोनों उड़ेलने लगे
अंजुरियों में भर मोहब्बत की गुनगुनी धूप
अलसाये से पौधे ने आँखे खोली ही थी कि
हमें फिर याद आ गए गन्तव्य अपने अपने
हम दौड़ते ही रहे
सुबह की चाय से रात की नींद तक
पसरे ही रहते हमारे बीच
काम घर बाहर मोबाइल लैपटॉप
फिट रहने सुंदर दिखने अपडेट रहने की दौड़ में
हम जीत ही गए आखिर
पर मुरझा गया लाल-लाल कोंपलों वाला
हमारे प्यार का पौधा
पर्याप्त प्रेम के अभाव में
जो था हमने रोपा
लाइब्रेरी की सीढ़ियों पर बैठकर
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तुम्हारा प्रेम
वैसे ही समाता गया मेरे वज़ूद में
जैसे जाड़ों की गुनगुनी धूप देती है
राहत काया की ठिठुरन को
हमारी तमाम असहमतियों
और नापसन्दगियों के बावज़ूद
आते गये करीब बेखबर से हम
एक दूजे को इत्तला किये बगैर
मन होते गये एक
दूध में घुली मिश्री की तरह
मेरे तुम्हारे भिन्न परिवेश
कभी आये नहीं आड़े
मैं नही बना पाती मक्के की रोटी
और अफीम की भाजी
तुम नहीं खा सकते दाल चावल रोज़
भुला दिए हमने
जाने कबके ये निरर्थक मसले
मौसमों के मिज़ाज बदलते रहे
हम होते गये निकटतम
पता भी नहीं चला
मेरी सारी दोस्तियाँ लिंगभेद से परे
जैसे सहज हैं तुम्हारे लिए
मेरे लिए वर्णभेद से इतर
तुम्हारी इच्छाएँ महत्वपूर्ण
जीवन के हर क्षण को
आनन्द से जीते भुला दीं परेशानियाँ
मौलश्री के फूलों-सी झरती रही
हमारी संयुक्त हँसी घर के आँगन में
रिश्तों की सघन बुनावट को जीते
अहम भूलकर करते रहे मान
अपने पराये का
तुम्हारे रोपे पौधे को सींचती रही मैं
किसी भी प्रतिदान की आकांक्षाओं से परे
तुम एक प्रकाश स्तम्भ से
थामे मेरी बाहें अंधेरों से बचाकर
हर बार ले आते किनारों पर
जहाँ बुनते रहे मेरे शब्द
हमारे प्रेम की कविता
सदियों से
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रंग
मेरा सांवला रंग
माँ की फ़िक़्र, मौसियों की सहानुभूति
सहेलियों की ख़ुशी का बायस बनता रहा
मैं कभी चिढ़, दुःख और
अवसाद से भर जाती रही
गोरे-चिट्टे,खूबसूरत भाई को
दादी लगाती डिठौना
और ले लेती बलैयां
एक दिन पिता ने
झाँका मेरी पनीली आँखों में
और लाड़ से कहा-
मेरी बिटिया
सांवली-सलोनी, मेरी कोयल
कित्ता कुछ है तुझमें
जो किसी में कहीं नहीं
एक जादू मोहब्बत का,
एक चुम्बक तहज़ीब का
तेरी निर्दोष मुस्कुराहट
इसी से कायम रहेगा वजूद अच्छाइयों का
तू भुला दे, किसी की चिंता
नफरत और लिजलिजी सहानुभूति
इस मौलिक मुस्कुराहट के
करिश्मे की चाभी से
खुद-ब-खुद खुलते जायेंगे
उम्मीदों के दरीचे
खिली-खिली सुबह के लिए
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विश्वास
हर बाढ़ के बाद नदियाँ
उपजाऊ बना जाती हैं मिट्टी,
हर सूखे के बाद
बारिशें धो देती हैं अवसाद,
आकाश की नीली ओढ़नी
रात के स्याह बदन को
नहीं रहने देती अनावृत,
पहाड़ों पे सुस्ताती धूप
भर देती है देह में ऊष्मा
औसारों पे धान कूटती स्त्रियों की,
हर बार थककर
गिरकर घुटने तुड़ा बैठा सांवला बच्चा
फिर से खड़ा हो जाता है
धरती की कोख में
विश्वास के बीज
हमेशा पनाह पाते हैं
अपने अस्तित्व के आधार को
बचाकर रखा है धरा ने।
– आरती तिवारी अंजलि