कविताएँ
कभी यूँ भी
ज़हन में कौंध गईं स्मृतियाँ
वही सोलहवें साल वाली
जब तुम, एक चित्रलिपि सी
एक बीजक मन्त्र सी
अबूझ पहेली थीं
जब पत्तियाँ थीं, फूल थे
पर सिर्फ मैं नहीं था
तुम्हारी नोटबुक में
चकित, विस्मित दरीचों की ओट से
पढ़ता तुम्हारा लिखा
इतिहास बनाती तुम
विस्फारित नेत्रों से तलाशता अपना नाम
जो कहीं न था नोटबुक में
उसे ही पढ़ने की ज़िद
कभी यूँ भी
मेरे अवचेतन में प्रतिध्वनि थी
मेरी ही आवाज़ की
नदारद था तुम्हारा उच्चारा
मेरा नाम
ऐसी कैसी कोयल कूकने को
राजी न थी जो
मुझे लगा तुम्हारा अनिंद्य सौंदर्य
रुग्ण हो जैसे
जैसे पानी में उतरी परछाई
जो डूब गई हो
मुझे बिठाकर किनारे पे
लौट जाने के लिए
कभी यूँ भी
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प्रेम
तुमने कहा
चाहता हूँ बेइन्तहा तुम्हें
तुम्हारी ख़ातिर सो नहीं पाता
रातों को
तुम्हारे सिर्फ तुम्हारे लिए
जागता और बदलता हूँ
करवटें सारी रात
सुबह से शाम तक
सिर्फ और सिर्फ
तुम्हें ही सोचता, जीता और
आँखों ही आँखों में पीता रहता हूँ
बस मिल जाओ चुपके से
हम मनाएं प्रीत का उत्सव
सिर्फ तुम और मैं
हम मिले तो कई बार पर
तुम दूर ही रहीं, जाने क्यों!
आज प्रॉमिस डे है, आओ क़रीब
मैंने कहा, आती हूँ सदा के लिए
सिर्फ तुम और मैं बस
वो हट गया घबरा के
नहीं ऐसे ही ठीक है
मेरा घर/ परिवार/ समाज
लोग क्या कहेंगे!
………और
दम तोड़ गया
उसका प्रेम, उमगने से पहले
– आरती तिवारी अंजलि