स्नेही मित्रों
नमस्कार
आशा है आप सब प्रसन्न व आनंदित हैं। हर वर्ष नया वर्ष आता है, ऐसे ही जैसे हर रात के बाद एक नया दिवस आता है, नई उमंग होती हैं, नए कार्यक्रम बनते हैं। हर वर्ष इसी प्रकार की योजनाओं का जन्म होता है जो दिन-रात अपना रूप परिवर्तित करती रहती हैं, कुछ पुराना निकलता है तो कुछ नया प्रवेश पाता है। नव वर्ष में कुछ बदल जाता है क्या? ऐसा ही तो चलता रहता है पूरे वर्ष! फिर अगले वर्ष वही सब! सही है न? वैसे ही दिन-रात, सुबह-शाम, अँधेरा-उजाला!
एक बात जरूर है कि हम सब नए वर्ष में नई आशाएं जरूर करते हैं। अब उनमें से किसकी कितनी पूरी होती हैं, नई योजनाओं के साथ कितना चल पाते हैं, कितने सपने पूरे होते हैं और कितने बीच में ही रह जाते हैं? इसका कुछ हिसाब- किताब नहीं होता।
उपनिषद में एक बड़ी प्यारी कथा है जिसे मैंने ओशो के प्रवचन में सुना, उसे आपके साथ साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पाई इसलिए उस कहानी को आप सब मित्रों से साझा कर रही हूँ।
याज्ञवल्क्य ऋषि को अपने काल का सर्वोपरि वैदिक ज्ञाता माना गया है। इनके दो पत्नियाँ थीं और इनके पास बहुतायत में धन भी था। अपने जीवन के अंतिम चरण में उन्हें महसूस हुआ कि अब उन्हें गृहस्थी छोड़कर किन्हीं पर्वतों की गुफाओं में या वन में चले जाना चाहिए। वे अपना धन अपनी दोनों पत्नियों में एक जैसा बांटकर वहाँ से चले जाना चाहते थे। याज्ञवल्कय उस समय के प्रकांड पंडित थे, ज्ञान में भी उनका किसी से कोई मुकाबला नहीं हो सकता था। साथ में तर्क में भी उनकी उच्च प्रतिष्ठा थी। उनकी कुछ ऐसी प्रतिष्ठा थी कि उनके समक्ष कोई भी नहीं टिक सकता था। न ही ज्ञान में, तर्क में और धन में भी!
कहानी कुछ ऐसी है कि राजा जनक ने एक बार एक बहुत बड़ा सम्मेलन किया और एक हजार गौओं के सींग सोने से मढ़वा कर, उनके ऊपर बहुमूल्य वस्त्र डाल कर उन्हें महल के द्वार पर खड़ा करवा दिया। उन्होंने मुनादी करवा दी कि जो पंडित विवाद जीतेगा, वह इन हजार गौओं को अपने साथ ले जाने का हकदार होगा यानि उसे यह पुरस्कार प्राप्त होगा।
खूब सारे पंडित इकट्ठे हुए। वाद – विवाद दोपहर हो गई। बड़ा वाद-विवाद चला। कुछ तय भी नहीं हो पा रहा था कि कौन जीतेगा, कौन हारेगा? दोपहर में याज्ञवल्क्य अपने शिष्यों के साथ पहुँचे। दरवाजे पर उन्होंने देखा कि गौएं सुबह से खड़ी-खड़ी थक गई हैं, धूप में उनका पसीना बह रहा है। उन्होंने अपने शिष्यों को आज्ञा दी कि वे गायों को ले जाएं, वे तर्क, विवाद को समाप्त करके आ जाएंगे। शिष्य अपने गुरु की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए गायों को हाँककर ले गए।
राजा जनक का भी यह कहने का साहस नहीं हुआ कि यह गलत है। पहले विवाद जीतने के बाद ही पुरुस्कार ले जाना चाहिए! वहाँ उपस्थित किसी पंडित ने कहा कि यह तो नियम के विपरीत है–पुरस्कार पहले ही कैसे?
याज्ञवल्क्य ने कहा कि उन्हें भरोसा है कि जीत तो उन्हीं की होगी। तुम फिक्र न करो। विवादों में क्या रखा है! लेकिन गौएं थक गई हैं, इन पर भी कुछ ध्यान करना जरूरी है। उन्होंने शिष्यों को संकोच करते देखकर उनसे कहा कि वे हार-जीत की चिंता न करें,गाएं ले जाएं वे सब निपटा लेंगे ।
शिष्य गौएं खदेड़ कर घर ले गए। याज्ञवल्क्य ने विवाद बाद में जीता। पुरस्कार पहले ले लिया। बड़े बड़े सम्राट उन के शिष्य थे।
अब उनके घर-परिवार छोड़ने का समय आ गया था। उन्होंने दोनों पत्नियों को बुला कर कहा कि सारा धन तुम दोनों में बाँट देता हूँ, यह इतना है कि सात पीढ़ियों तक भी खत्म नहीं होगा इसलिए वे निश्चिंत रहें, उन्हें जीवन में कोई अड़चन नहीं आएगी और स्वयं वन में जाने के लिए निकलने लगे। अब अपने अंतिम दिनों में वह परमात्मा के साथ समग्रता से लीन हो जाने के लिए उत्सुक थे। अब वे किसी और प्रपंच में पड़ना नहीं चाहते थे, वे एक क्षण भी किसी और बात में नहीं लगाना चाहते थे।
उनकी एक पत्नी तो इतने धन मिलने की बात जानकर बड़ी प्रसन्न हुई, क्योंकि इतना धन था जिससे वह जीवन भर खूब आनंद में रह सकती थी। लेकिन दूसरी पत्नी ने कहा कि इसके पहले कि आप वन के लिए प्रस्थान करें, गुफ़ाओं में रहने जाएं, उससे पहले इन प्रश्नों का उत्तर दे दें।
पत्नी ने याज्ञवल्क्य से पूछा कि इस धन से आपको शांति मिली? इस धन से आपको आनंद मिला? इस धन से आपको परमात्मा मिला? अगर मिल गया तो फिर कहाँ और क्यों जाना है? अगर नहीं मिला तो यह कचरा मुझे क्यों पकड़कर जाना चाहते हैं? मुझे कुछ नहीं चाहिए, मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूँ।
याज्ञवल्क्य जीवन में पहली बार निरुत्तर खड़े थे। उन्हें यह समझ में नहीं आ रहा था, अब इस स्त्री को क्या कहे! कहें कि उन्हें कुछ नहीं मिला तो बाँटने की इतनी अकड़ क्या और क्यों? वह बड़े गर्व से अपने पास की वस्तुओं को बाँट रहे थे। देखो! इतने हीरे-जवाहरात, इतना सोना, इतने रुपये, इतनी जमीन, इतना विस्तार! बाँटते समय थोड़ा अहंकार तो रहा ही होगा कि देखो कितना देकर जा रहे हैं। किस पति ने कभी अपनी पत्नियों को इतना दिया है? लेकिन दूसरी पत्नी ने उनके सारे अहंकार पर पानी फेर दिया। उसने कहा, अगर तुम्हें इससे कुछ भी नहीं मिला तो यह कचरा हमें क्यों पकड़ाते हो? यह उलझन हमारे ऊपर क्यों डाले जाते हो? अगर तुम इससे परेशान होकर जंगल जा रहे हो तो आज नहीं कल हमें भी जाना पड़ेगा। तो कल क्यों, आज ही क्यों नहीं? मैं चलती हूँ तुम्हारे साथ।
कितना भी पैसा हो जब तक एक दूसरे की परवाह न हो, प्रेम न हो, केवल धन से मन को नहीं जीता जा सकता। प्रेम का स्वरूप पैसे में नहीं हमारे साथ होने में है और उसका कोई आकार नहीं है जो किसी वृत्त में उसे बाँधा जा सके। हम तो साधारण मनुष्य हैं, इतने बड़े ऋषि मुनि भी अहंकार से अछूते नहीं रह पाए।
केवल प्रेम ही वह संवेदना है जिसे सबमें बाँटकर हम वास्तव में भीतर से अमीर होते जाते हैं। जहाँ दूसरी कोई भी वस्तु वृत्त में सीमित हो जाती है, उसका एक आकार बन जाता है वहाँ एक प्रेम इतना विस्तृत है जिसे कहीं भी, किसी वृत्त में नहीं बाँधा जा सकता। इसके समक्ष अन्य सब वस्तुएं तुच्छ हो जाती हैं।
मित्रों! और किन्ही योजनाओं के साथ प्रेम का विस्तार करने की योजना बनाएं, यह अवश्य ही सफ़ल होगी क्योंकि प्रेम को कभी तोला नहीं जा सकता, गिना नहीं जा सकता, कभी किसी वृत्त में नहीं रखा जा सकता।
सभी को पूरे वर्ष भर की स्नेहिल शुभ, शुभ्र मंगलकामनाएं!