स्नेहिल नमस्कार
प्यारे मित्रों
आशा है सब कुशल -मंगल हैं। श्राद्ध-पक्ष के बाद त्योहारों का मौसम आ गया है। हमारा भारत त्योहारों का रंग-बिरंगा देश है। एक अलग ही सुगंध से भरा हुआ, पावन संदेशों से ओतप्रोत! किसी झरने के पानी की कर्णप्रिय आवाज़ सा सुमधुर!
नवरात्रि के शुभारंभ के साथ ही हर मन के कोने से माँ की स्नेहिल छवि झाँकने लगी। माँ,जो सर्वव्यापी है, माँ जो जननी है, माँ जो धरती है जिस पर हमें जन्म मिला है। इस धरती माँ के कितने अहसान हैं हम पर! जन्म से लेकर अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक माँ हमें अपनी गोद में बैठाकर सदा आशीषों से भरती रहती है।
कहा जाता है कि किसी समय हमारे देश में दूध की नदियाँ बहा करती थीं लेकिन शनै:शनै: सब कुछ बदलता रहा। आज जो दशा है उससे हम सब वाकिफ़ हैं ही! मित्रों! हर तरफ़ एक ही चीज़ दिखाई देती है और वह है स्पर्धा! एक दूसरे के साथ प्रेम का अभाव! माँ हमें प्रेम से जन्म देती है, अपने ऊपर सौ-सौ बोझ उठाकर भी हमें ज़िंदा रखती है। हमारी ज़िंदगी और खुशी के लिए वह अपने ऊपर कितना बोझ उठाती है और हम क्या कर रहे हैं? हम उसकी परवाह तक नहीं करते! सोचने का विषय यह है कि अपनी माँ के प्रति क्या हमारा कोई कर्तव्य नहीं है?
माँ ने एक बात जन्म से ही हमारे साथ की और सिखाई,वह है प्रेम। अब एक ही तो चीज़ प्रमुख है, वह है प्रेम का अभाव! इसके अभाव में हम सकारात्मक कैसे हो सकते हैं?
यह बिलकुल सच है कि समय के साथ हर चीज़ में बदलाव आता है। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, समय के साथ में बदलाव आना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है लेकिन जिन मूल बातों में बदलाव आया है, आ रहा है वह जीवन को कितना दुखद बना देता है। कई बार तो बातें असहनीय हो जाती हैं।
अपने आपको उस ऊर्जा ‘पावर’ पर समर्पित करना अच्छा है, खुद के लिए और समाज के लिए भी। हम गलत बातों के साथ यदि समर्पण करने की सोच रखें तब भी उस समर्पण से कोई लाभ कैसे हो सकता है? समर्पण एक ईमानदारी की भावना व प्रक्रिया है। हम पूजा,अर्चना,व्रत-उपवास भय से करते हैं। जो भी करना हो अभय होकर करें क्योंकि हमारे भीतर वही तो विराजमान है जिसने हमें बनाया है और न जाने कितने आशीषों से भरा है।
लोगों के भय का मुख्य कारण है ‘अभाव या कमी’। कई लोग इस बात से डरते हैं कि जो उनके पास है या जो वो चाहते हैं, वो उनके लिए काफी नहीं है। इसलिए वो हमेशा कुछ-न-कुछ पाने का प्रयास करते रहते हैं ताकि भविष्य में उनके पास पर्याप्त हो। वो अपने आपको यह सोचकर कमज़ोर बना लेते हैं कि एक दिन भविष्य में उनके पास सब कुछ होगा। उनके पास उतना पैसा होगा जितना वो चाहते हैं, उनकी इच्छा के हिसाब से संपत्ति होगी, उम्मीद के अनुसार प्यार होगा और वो सारी सफलताएं होंगी जिसको पाने का वो प्रयास करते हैं। लेकिन क्या वास्तव में कभी कुछ भी पर्याप्त होता है? क्या कोई वाकई में वास्तव में इच्छाओं के अंतिम पड़ाव तक पहुंचता है?
प्रचुरता का अर्थ है कि सोची गई सभी चीजें संभव है और हर किसी के लिए अभी और यहां जरूरत से भी ज्यादा हो। यदि हम अपना ध्यान भविष्य के कुछ बिंदुओं से वर्तमान में डालते हैं तो हम उस संपत्ति और उपहारों को देखने में पूरी तरह सक्षम हैं जो उस विधाता ने पहले से हमें दिए हैं।
हम अपने आंतरिक जीवन को बाहरी दुनिया की चीजों से भरने का प्रयास करते हैं। कोई भी बाहरी चीज, आकर्षण, प्यार या दूसरों की तवज्जो आंतरिक खालीपन को नहीं भर सकती है। जब हम स्वयं ही अपनी आंतरिक प्रचुरता का आनंद लेंगे तो हमें कहीं और देखने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
माँ के गर्भ में आने से लेकर प्राणी प्रेम और केवल प्रेम में ही सराबोर रहे तो जीवन बड़ा सरल ,सहज और जीने योग्य हो जाता है,क्लेशों से दूर!
बस,यही जीवन है जिसमें हमें साँसें लेनी हैं ,जीवित रहना है। आए हैं तो प्रेम के कारण, जाएं तब प्रेम छोड़कर जाएं। यही जीवन की सफ़लता है।
त्योहारों के इस मौसम में हम प्रेम से ओतप्रोत रहेंगे तब वर्ष भर भी प्रेम से ही सराबोर रहेंगे। स्मरण यह रखना है कि प्रेम कभी वृत्त में नहीं रह सकता। प्रेम एक उन्मुक्त पंछी है जो एक डाल से दूसरी पर यानि एक हृदय से दूसरे हृदय में समाया रहता है। हम नहीं रहेंगे लेकिन प्रेम सदैव रहेगा –
प्रेम बिना एक पल नहीं, प्रेम ही तो अनमोल,
प्रेम बिना जीवन कहाँ, गाँठ हृदय की खोल।