इक्कीसवीं सदी का ईश्वर
बहुत बदल गया ईश्वर दो हजार बीस से
कई नामों से याद करते रहे अरबों लोग
हर क्षण के साथ
दुनिया के हर कोने में
तमाम भाषाओं में कितने ही मंत्र
झूठे पड़ गए
बीच रास्ते ही मर गईं प्रार्थनाएं
नहीं खुले अधिकतर आस्था घरों के पट
कुछ खुले भी तो
ईश्वर को छूना निषिद्ध था वहां
घंटियाँ टकारने के लिए जो हाथ उठे
सिमट गए किसी अवांछित डर से
न दीप जले
न जलते दुख का धुआं उठा
तमाम कोशिशों के बावजूद
जो लोग बॉडी बैग में भर दिए गए
ईश्वर उनके पास भी नहीं आ पाया
दो हजार इक्कीस, दो हजार बाईस
समय नहीं थमा एक पल भी
पलटकर देखने के लिए
लगा ईश्वर की कोई भूमिका नहीं रही
हमारे समय में।
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प्रश्नवाचक समय
मैं समय हूँ
तिकड़मों का समय
टूटे संवाद का समय
चुप्पी का समय
या फिर जुल्म से जन्मी
जय-जयकार का समय
पर मैं समय हूँ
चीख़-चिल्लाहटों का समय
लूटपाट का समय
मरने-मारने का समय
गुंडागर्दी-धोखेबाजी का समय
या फिर बुल्डोजर का समय
पर मैं समय हूँ
मुग़ालते का समय
छल-कपट का समय
अंधी वैचारिकता का समय
संकीर्णता का समय
या फिर असहमति का समय
मैं समय हूँ
प्रश्नवाचक समय!