मणिपुर अपने शाब्दिक अर्थ के अनुरूप वास्तव में मणि की भूमि है। इसे देवताओं की रंगशाला कहा जाता है। सदाबहार वन, पर्वत, झील, जलप्रपात आदि इसके नैसर्गिक सौंदर्य में चार चांद लगा देते हैं। इसलिए मणिपुर को भारत का मणिमुकुट कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है। प्रदेश के पास गौरवशाली अतीत, समृद्ध विरासत और स्वर्णिम संस्कृति है।
यहाँ तीन जातीय समूह के लोग रहते हैं–1.मैतेई 2.नागा समूह की जनजातियाँ और 3.कुकी-चीन समूह की जनजातियाँI यहाँ का मैतेई समुदाय वैष्णव धर्म को मानता है, लेकिन यह उनका मूल धर्म नहीं है। पहले मैतेई समुदाय सनामही धर्म में आस्था रखता था, लेकिन कालांतर में अनेक कारणों से सनामही धर्म का पतन हो गया। मणिपुर में नागा और कुकी-चीन समूह की जनजातियाँ ईसाई धर्म को मानती हैं। यहाँ मैतेई और आदिवासी समुदाय के लोग अनेक पर्व-त्योहार मनाते हैंI
लाई-हराओबा (Lai Haraoba)– लाई-हराओबामणिपुर का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और रंगीन त्योहार है। लाई-हराओबा को उमंग लाई हराओबा भी कहते हैं। यह एक पारंपरिक मैतेई त्योहार है। यह त्योहार सृष्टिकर्ता ईश्वर द्वारा पृथ्वी की रचना और उस पर जीवों के निवास से संबंधित है। सृष्टि की पूरी प्रक्रिया का जश्न मनाने के लिए हर साल लाई-हराओबा त्योहार मनाया जाता है। इसलिए इस त्योहार को सृष्टि की प्रक्रिया का उत्सव कहते हैं। लाई-हराओबा ही नृत्य और लोकगीतों (खुनुंगइसाई) का मूल स्रोत है। लाई-हराओबा को सभी मणिपुरी नृत्यों और कुछ स्वदेशी खेलों का उत्स माना जाता है। इस त्योहार का आरम्भ ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में हुआ। उस समय पुष्प, खाद्य पदार्थ आदि अर्पित करना ही मुख्य अनुष्ठान होता था, बाद में इस त्योहार के साथ और अन्य अनुष्ठान और परम्पराएं जुड़ गईं। इस त्योहार में उमंग लाई के नाम से जाने जाने वाले सिलवन देवताओं की उपासना की जाती है। यह त्योहार पारंपरिक देवताओं और पूर्वजों की पूजा का प्रतिनिधित्व करता है। प्राचीन दिव्यताओं से पहले पुरुषों और महिलाओं द्वारा कई नृत्य किए जाते हैं। यह त्योहार ब्रह्मांड के सृजन में भगवान के योगदान की स्मृति के रूप में आयोजित किया जाता है।
याओशंग या डोल जात्रा (Yaoshang or Dol Jatra)– फाल्गुन माह की पूर्णिमा (फरवरी/मार्च) से शुरू होने वाले पांच दिवसीय याओशंगमणिपुर का प्रमुख त्योहार है। इस त्योहार में थबलचोंगबा नृत्य प्रस्तुत किया जाता है। थबलचोंगबा एक मणिपुरी लोक नृत्य है जिसमें लड़के और लड़कियाँ हाथ पकड़कर नृत्य करते हैं और सभी लोग उस नृत्य का आनंद लेते हैं। नृत्य के दौरान पुरुष महिलाओं को पैसे भी देते हैं। इसे मणिपुर की होली भी कहा जाता है। यह स्वदेशी संगीत और नृत्य के साथ मनाया जाता है। इस त्यौहार में हिंदू मान्यताओं और मैतेई प्रथाओं का मणिकांचन संयोग देखने को मिलता है। थबलचोंगबा लोक नृत्य इस उत्सव का एक महत्वपूर्ण आकर्षण है जिसका प्रदर्शन रात्रि में किया जाता है। मणिपुरी पुरुष और महिलाएं स्थानीय लोक गीत गाते हैं और ढोलक की थाप पर नाचते हैं। वे पारंपरिक मणिपुरी वेशभूषा पहनकर नृत्य करते हैं।
कुत (Kut)– कुत मणिपुर के कुकी-चीन समूह के आदिवासी समुदायों का प्रमुख त्योहार है। यह त्योहार शरद ऋतु में मनाया जाता है। यह त्योहार मणिपुर के सभी जिलों में पूर्ण उत्साह और धूमधाम के साथ मनाया जाता है। त्योहार को विभिन्न जनजातियों के बीच विभिन्न स्थानों पर चवांग-कुत या खोदो आदि के रूप में वर्णित किया जाता है। यह ग्रामीणों के लिए एक खुशी का अवसर होता है जिनके भोजन का भंडार एक साल के कठिन परिश्रम के बाद भर जाता है। यह त्योहार धन्यवाद देने का एक अवसर है जिसमें गीतों के साथ दावत दी जाती है। यह हर साल एक नवंबर को मनाया जाता है। इस त्योहार के अवसर पर उत्साह और उमंग के साथ नृत्य–गीत प्रस्तुत किए जाते हैं और भरपूर फसल देनेवाले परम पिता को धन्यवाद दिया जाता है। इस त्योहार का उद्देश्य सभी समुदायों में सांप्रदायिक सद्भाव, प्रेम और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को बढ़ावा देना है। यह त्योहार वास्तव में कठिन श्रम के बाद भरपूर फसल की प्राप्ति का आनंदोत्सव है।
कंघी त्योहार (Kanghi Festival)–मणिपुर की मरम नागा जनजाति द्वारा यह त्योहार मनाया जाता है। मरम नागा का सात दिवसीय कंघी त्योहार दिसंबर महीने में आयोजित किया जाता है। यह युवाओं का एक भव्य उत्सव है। त्योहार की शुरुआत भैंस और गायों को मारने से होती है। दूसरे दिन छोटे बच्चे मुर्गों के साथ खेलते हैं जिन मुर्गों को शाम को मार दिया जाता है। गांव के युवाओं के लिए कुश्ती प्रतियोगिता आयोजित की जाती है। लड़के और लड़कियाँ अपने युवागृहों (डोरमेटरी) में इकट्ठा होते हैं। वे त्योहार के तीसरे दिन अपने युवागृहों में भोजन और मांस तैयार करते हैं। खाद्य पदार्थों का परस्पर आदान-प्रदान किया जाता है और गाँव के लोग भव्य दावत में भाग लेते हैं। लड़कों द्वारा एक कुत्ते को मारा जाता है और कुत्ते का सिर लड़कियों के युवागृह में दे दिया जाता है ताकि लड़कियां भोजन की तैयारी कर सकें। विवाहित महिलाएं अपने माता-पिता को मदिरा परोसती हैं। इस अवसर पर लंबी कूद प्रतियोगिता, कुश्ती प्रतियोगिता आदि आयोजित की जाती है।
गंग-नगाई (Gang-Ngai)–गंग-नगाईकबुई नागा जनजाति का प्रमुख त्योहार है। दिसंबर-जनवरी महीने में पांच दिनों तक यह त्योहार मनाया जाता है। मणिपुर के कबुई नागा समुदाय अपनी जीवन शैली, संस्कृति और अपने धर्म को व्यक्त करने के इस अवसर का पूरे साल इंतजार करते रहते हैं। वे इस पांच दिवसीय त्योहार में संगीत, नृत्य, दावत का भरपूर आनंद लेते हैं। गंग-नगाई त्योहार शगुन समारोह से शुरू होता है। त्योहार के प्रथम दिन कबुई नागा पवित्र अनुष्ठानों के माध्यम से अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं। इसके बाद चार दिनों तक लगातार उत्सव मनाया जाता है। सामुदायिक दावतें, संगीत और नृत्य प्रदर्शन के विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। इस अवसर पर पारंपरिक वेशभूषा में वाद्ययंत्रों की धुनों पर नाचते हुए पुरुषों और महिलाओं से भरी सड़कें मणिपुर में एक सुंदर दृश्य उपस्थित करती हैं। इस त्योहार के अवसर पर दोस्तों और परिवारों के बीच उपहारों का आदान-प्रदान भी किया जाता है।
चुमफा (Chumpha)–तंगखुल नागा जनजाति के लोग मणिपुर के उखरुल जिले में रहते हैं। चुम्फु या चुम्फा इस समुदाय का एक विशिष्ट त्योहार है जो हर साल दिसंबर में फसल की कटाई के बाद सात दिनों तक मनाया जाता है। तंगखुल नागा इस त्योहार को बहुत धूमधाम के साथ मनाते हैं। अन्य त्योहारों से अलग इस त्योहार में महिलाओं द्वारा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जाती है। इस त्योहार की पूर्व संध्या पर गांव के तालाबों को साफ किया जाता है और तालाबों को अच्छी तरह से सुखा दिया जाता है। अगले दिन सुबह किसी भद्र महिला को तालाब से पानी लेने की अनुमति दी जाती है। तंगखुल समुदाय की एक अनूठी परंपरा यह है कि वे पेय जल की शुद्धता पर विशेष ध्यान देते हैं। वे पीने के पानी की विशेष देखभाल करते हैं और शुद्ध व उबला हुआ पानी पीते हैं। वे सभी जल स्रोतों की समय-समय पर साफ-सफाई करते रहते हैं। वे अपने तालाबों को बाड़ से घेरकर रखते हैं तथा किसी को अपने जानवरों को नहलाने और इसमें कपड़े धोने की अनुमति नहीं देते हैं। इस समुदाय में एक परंपरा है कि जब तक चुम्फु त्योहार नहीं मनाया जाता है और आवश्यक अनुष्ठान आयोजित नहीं किए जाते हैं तब तक नया चावल खाना वर्जित है। इस त्योहार में महिलाओं द्वारा धन की देवी की पूजा की जाती है। इस दिन पुरुष सदस्य लगातार दो रातों तक घर से बाहर रहते हैं। अगर उनके पति गलती से अनुष्ठान को देख लेते हैं तो यह माना जाता है कि आगामी वर्ष में व्यक्ति को शिकार, मछली पकड़ने या युद्ध में कोई सफलता नहीं मिलेगी। अनुष्ठान के बाद महिला अपनी सास के साथ खलिहान में पूरे परिवार के साथ चूल्हे के आसपास बैठती है और उसकी सास उसके लिए कुर्सी खाली करती है। उस खाली कुर्सी पर बहू बैठती है। कुर्सी को खाली करने का तात्पर्य यह है कि युवा दुल्हन को घर के प्रत्येक काम का प्रभार दे दिया गया और अब वह उस घर की मालकिन बन गई। त्योहार के अंतिम तीन दिन सामाजिक समारोहों और मनोरंजन कार्यक्रमों के लिए समर्पित होते हैं। सामाजिक समारोहों में सगे–सम्बन्धियों और दोस्तों को आमंत्रित किया जाता है। इस त्योहार का समापन गांव के भीतर एक जुलूस निकालकर किया जाता है।
चेईराओबा (Cheiraoba)-चेईराओबामैतेई त्योहार है। यह मणिपुर के नए वर्ष का त्योहार है जिसे सभी मैतेई परम्परागत तरीके से मनाते हैं। पहले इस त्योहार की घोषणा चार ‘पना’ के प्रमुख करते थे। पंद्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्धमें राजा क्यम्बा के शासनकाल में अनुष्ठानों के तरीकों में बदलाव किया गया और चार पना के स्थान पर शाही अधिकारी त्योहार की घोषणा करने लगे जिन्हें ‘चेईताबा’ कहा जाता था। ‘चेईताबा’ मैतेई ब्राह्मण होता था, कोई गैर–हिंदू ‘चेईताबा’ नहीं बन सकता था। राजा की उपस्थिति में अनुष्ठान आयोजित होता था। चेईराओबा ‘चेई’ और ‘राओबा’ के योग से बना है। ‘चेई’ का अर्थ वर्ष और ‘राओबा’ का अर्थ ‘चिल्लाना’ होता है। अतः चेईराओबा का अर्थ नए वर्ष की घोषणा है। ‘पना’ अथवा ‘चेईताबा’ द्वारा त्योहार की घोषणा से ‘चेईराओबा’ शब्द का संबंध है। मैतेई के अतिरिक्त पंगल समुदाय (मणिपुरी मुस्लिम) भी यह त्योहार मनाता है। बाँस में लगा झंडा और घंटी बीते हुए वर्ष और आनेवाले वर्ष के संकेतक हैं। इस त्योहार के दौरान लोग अपने घरों की साफ-सफाई कर उसे सजाते हैं। इस उत्सव के अवसर पर विशेष प्रकार के व्यंजन तैयार किए जाते हैं और सर्वप्रथम विभिन्न देवताओं को व्यंजन अर्पित किए जाते हैं। इस दिन गाँव के लोग निकट में स्थित पर्वत चोटी पर चढ़ते हैं। पहाड़ी की चोटी पर चढ़ने का अनुष्ठान त्योहार का अभिन्न अंग है। ग्रामीणों का विश्वास है कि ऐसा करने से वे सांसारिक जीवन में अधिक से अधिक ऊंचाइयों तक पहुंचने में सक्षम होंगे। मणिपुर के प्रत्येक घर में कुलदेवता सनामही की पूजा की जाती है। इस दिन लोग नए कपड़े पहनते हैं और नए बर्तन भी खरीदते हैं। पूरे मणिपुर में यह त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है। इस अवसर पर परिवारों और दोस्तों के बीच उपहारों का आदान-प्रदान किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि यह लोकप्रिय त्योहार परिवार के सदस्यों के बीच अटूट प्रेम बंधन का प्रतीक है। चेईराओबा का समारोह राज्य और वैयक्तिक दोनों स्तरों पर आयोजित किया जाता है।
हेईग्रुहिडोंगबा (Heigru–Hidongba)– यह मणिपुर के मैतेई समुदाय का एक प्राचीन त्योहार है। यह त्योहार सितंबर महीने में मनाया जाता है। यह त्योहार आनंद का उत्सव है जिसका धार्मिक महत्व भी है। नाव दौड़ इस त्योहार का अभिन्न अंग है। दौड़ शुरू होने से पहले श्री विष्णु की मूर्ति स्थापित की जाती है। मणिपुर में यह त्योहार राजर्षि भाग्यचंद्र से बहुत पहले से मनाया जा रहा था। राजर्षि भाग्यचंद्र ने प्राचीन मैतेई पारंपरिक तत्वों के साथ वैष्णववाद के तत्वों जैसे, पूजा, फल-फूल अर्पण, संकीर्तन, शंख ध्वनि आदि का मिश्रण किया और नाव पर चढ़ने के बाद श्री बिजय गोविंद की आरती की। दौड़ शुरू होने से पहले खबकलकपा नाव (एक साथ बंधी दो नावें) में सवार होकर श्री बिजयगोविंदा जुलूस में जाते हैं। श्री बिजय गोविंद को फल, फूल अर्पित किया जाता है और उनकी आरती की जाती है। जुलूस के बाद श्री बिजय गोविंद को ले जाने वाली नाव पूर्व की ओर जाती है। यहाँ प्रत्येक टीम का नेता नाव पर आकर देवता को प्रसाद अर्पित करता है। संक्षिप्त विश्राम के बाद नौकाओं को दौड़ क्षेत्र में लाया जाता है और दौड़ शुरू होती है। नाव की दौड़ से एक दिन पहले सुबह के समय प्रत्येक टीम का नेतृत्व करने वाले दो व्यक्ति एक कंटेनर में चांदी और सोने से बने सामान डालते हैं और इसे श्री बिजयगोविंदा को भेंट करते हैं। इससे यह प्रदर्शित किया जाता है कि सभी लोग ब्रह्मांड के सर्वोच्च स्वामी के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। ये मैतेई परंपरा में पूजा के प्राचीन तरीके हैं।
निंगोलचकौबा (NingolChakouba)– निंगोलचकौबा मणिपुर का सबसे बड़ा और रंगीन त्योहार है। यह मैतेई समुदाय का एक महत्वपूर्ण त्योहार है। ‘निंगोलचकौबा’ का अर्थ है महिलाओं को पैतृक घर में भव्य भोज के लिए आमंत्रित करना। ‘निंगोल’ का अर्थ है ‘महिला’ और ‘चकौबा’ का अर्थ है ‘भोजन के लिए बुलाना’। इसलिए यह दिन विवाहिता बेटियों और बहनों के लिए विशेष महत्वपूर्ण है। इसमें सभी उम्र की बहन और बेटियों को आमंत्रित किया जाता है। प्रत्येक वर्ष अक्टूबर-नवंबर माह में इस त्योहार का आयोजन किया जाता है। इस त्योहार में अमीर–गरीब सभी शामिल होते हैं। परंपरा के अनुसार त्योहार के कुछ दिन पहले सभी बहन-बेटियों को औपचारिक रूप से आमंत्रण भेजा जाता है। इस त्योहार के अवसर पर सभी बहन–बेटियाँ अपने माता–पिता के घर में कुछ समय बिताती हैं। इस त्योहार में महिलाएं पारंपरिक परिधान और अलंकार धारण कर अपने बच्चों के साथ अपने पैतृक घर में आती हैं, अपने माता–पिता और भाइयों से मिलती हैं और उनके साथ भोजन करती हैं। दूर देश में रहनेवाली महिलाएं भी इस मौके को छोड़ना नहीं चाहती हैं क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस त्योहार में शामिल होनेवाली महिलाएं भाग्यशाली होती हैं। अपने माता-पिता के घर पर महिलाओं को स्वादिष्ट भोजन, उपहार और पूर्ण आराम दिया जाता है। माता–पिता और भाइयों द्वारा अपनी बेटियों और बहनों के लिए सुस्वादु भोजन तैयार किए जाते हैं। माता–पिता, दादा- दादी, भाई आदि घर के सभी सदस्य अपनी निंगोल (बेटियों और बहनों) का गर्मजोशी से स्वागत करते हैं। पारिवारिक आत्मीयता को पुनर्जीवित करने के लिए इससे बेहतर कोई अवसर नहीं हो सकता है। परंपरा के अनुसार शादी के बाद महिला अपने पैतृक घर को भौतिक रूप से तो छोड़ देती है, लेकिन जिस घर में वह पैदा हुई और पली-बढ़ी उस घर को मन से कभी नहीं छोड़ पाती है। निश्चित रूप से यह त्योहार परिवार के सदस्यों को पुनर्मिलन का अवसर देता है। यह मूल रूप से परिवार के पुनर्मिलन का उत्सव है। इस त्योहार में कई पीढ़ियों के लोग, पुरुष और महिला, युवा और बुजुर्ग मिलते हैं और त्योहार का आनंद लेते हैं। यह त्योहार भाई-बहनों के बीच स्नेह सूत्र को मजबूत बनाता है। भव्य दावत के बाद माता-पिता बेटियों और बहनों को सामान्य उपहार के साथ आशीर्वाद भी देते हैं। कहा जाता है कि बहन के साथ कभी भी दुर्व्यवहार नही करना चाहिए क्योंकि भाई की खुशी उसकी बहन की खुशी में निहित है।
रास लीला– रासलीला मणिपुरी शास्त्रीय नृत्य का प्रतीक है। इसमें राधा और कृष्ण के अलौकिक प्रेम के साथ-साथ गोपियों के उदात्त और पारलौकिक प्रेम व प्रभु की भक्ति को दर्शाया जाता है। यह आम तौर पर मंदिर के सामने किया जाता है और दर्शक भक्ति की गहराई में डूबकर इसे देखते हैं। रास का प्रदर्शन बसंत पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा और कार्तिक पूर्णिमा की रात में इम्फाल स्थित श्रीश्री गोविंदजी के मंदिर में किया जाता है और बाद में इसका प्रदर्शन स्थानीय मंदिरों में किया जाता है। रचना के अनुसार इसका प्रदर्शन एकल, युगल और समूह में किया जा सकता है। नृत्य की इस विशिष्ट शैली में सूक्ष्मता, नवीनता और आकर्षण है। नर्तकों की वेशभूषा का कलात्मक सौन्दर्य दर्शकों को अभिभूत कर देता है। मणिपुरी रास एक नृत्य नाटिका उत्सव है जो श्रीकृष्ण की लीलाओं पर आधारित है। रासलीला राजर्षि भाग्यचंद्र (1777-1891) की व्यापक दृष्टि की उत्पत्ति है। रासलीला में वृंदावन की गोपियों के साथ श्रीकृष्ण के दिव्य प्रेम की कहानी प्रदर्शित की गई है। रासलीला का यह त्योहार मुख्य रूप से श्री श्री गोविंदजी मंदिर (इंफाल) में मनाया जाता है। यह राधा और वृंदावन की अन्य गोपियों के साथ भगवान कृष्ण का नृत्य उत्सव है। इस त्योहार के अनेक नृत्य मणिपुरी शास्त्रीय नृत्य के रूप में संगीत प्रेमियों के बीच प्रसिद्ध है। मणिपुरी रास पांच प्रकार के होते हैं-वसंत रास, कुंज रास, महारास, नित्य रास और दिबा रास। बसंत रास, कुंज रास और महारास की शुरुआत स्वयं राजश्री भाग्यचंद्र महाराज ने की थी और बसंत पूर्णिमा, शरद पूर्णिमा और कार्तिक पूर्णिमा की रात्रि में श्रीगोविंद जी की मूर्ति स्थापित कर श्री श्री गोविन्दजीमण्डप में उनका प्रदर्शन किया जाता था। नित्य रास की शुरुआत उनके पोते श्री चंद्रकीर्ति महाराजा और दिव्य रास की शुरुआत श्री चूड़ाचाँद महाराजा द्वारा की गई थी।
अंग्गी–फेव त्योहार (Anggee–Pheo Festival)–थंगलमणिपुर की एक नागा जनजाति है जिसके सभी गाँव सेनापति जिले में स्थित हैं। सरकारी दस्तावेजों में इन्हें ‘कोईरव’ कहा गया है। इस समुदाय को ‘कोईरव’ नाम संभवतः दूसरे लोगों ने दिया है क्योंकि इस समुदाय के लोग खुद को ‘कोईरव’ नहीं कहते हैं। अंग्गी–फेव इस जनजाति का एक प्रमुख त्योहार है जिसका आयोजन जनवरी माह में किया जाता है। ‘अंग्गी–फेव’ का शाब्दिक अर्थ ‘ढाल की सफाई’ है। इस त्योहार में सभी प्रकार के औजारों और उपकरणों जैसे, कुदाल, दाव, कुल्हाड़ी, फावड़ा आदि की सफाई साफ़ जल से की जाती है। इस त्योहार का उद्देश्य मनुष्य के सभी पापों को पीछे छोड़ते हुए आगामी वर्ष की सुख–समृद्धि के लिए प्रयत्न करना है। यह त्योहार तीन दिनों तक मनाया जाता है। इस त्योहार में पुरुष वर्ग मुख्य भूमिका निभाता है। इस त्योहार के प्रथम दिन पुरुषों द्वारा औजारों और उपकरणों की सफाई की जाती है। त्योहार के दूसरे दिन पुरुषों के लिए महिलाएं चावल से बनी ताजा मदिरा लाती हैं। सबसे पहले ईश्वर के नाम पर थोड़ी मदिरा अर्पित की जाती है जिसके बाद महिला–पुरुष सभी भोज में शामिल होते हैं और मदिरा का सेवन करते हैं।
लिन्हू त्योहार (Linhu Festival)–थंगलमणिपुरकी एक महत्वपूर्ण जनजाति है जिसकी अधिकांश आबादी सेनापति जिले में निवास करती है। मणिपुर का थंगल समुदाय प्रत्येक वर्ष फ़रवरी महीने में लिन्हू त्योहार मनाता है। तीन दिनों तक धूमधाम से इसका आयोजन किया जाता है। इस दिन गाँव का चीफ उपवास रहकर ईश्वर की पूजा करता है। यह इस समुदाय का कृषि संबंधी त्योहार है। इस त्योहार के पहले किसी को अपने खेतों में बीज बोने की अनुमति नहीं है। इस त्योहार की कोई निश्चित तिथि नहीं है। सामान्यतः गाँव के बुजुर्ग त्योहार की तिथि निर्धारित कर उसकी सार्वजानिक घोषणा करते हैं। इस त्योहार का मुख्य उद्देश्य गाँव के चीफ द्वारा अच्छी फसल के लिए प्रार्थना करना है। त्योहार के एक दिन पहले गाँव के सभी द्वार बंद कर दिए जाते हैं तथा किसी को गाँव से बाहर जाने की अनुमति नहीं दी जाती। कोई आकस्मिक स्थिति उत्पन्न होने पर गाँव के चीफ द्वारा गाँव से बाहर जाने अथवा किसी को गाँव में प्रवेश करने की अनुमति दी जाती है। गाँव का चीफ इस त्योहार के आयोजन में प्रमुख भूमिका निभाता है। वह तीन दिनों तक उपवास में रहता है और अलग कमरे में सोता है। उसकी सहायता के लिए एक अविवाहित युवक उसके साथ रहता है। वह तीन दिनों तक केले के पत्ते में चार बार चावल से बनी स्थानीय मदिरा पीता है। इस दौरान गाँव के प्रत्येक परिवार का यह दायित्व है कि वह चीफ के लिए निरंतर मदिरा की आपूर्ति करता रहे। ईश्वर को भी मदिरा अर्पित की जाती है और उनसे अच्छी फसल के लिए प्रार्थना की जाती है। त्योहार के दौरान चीफ द्वारा देखे गए सपने अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं। उन सपनों से फसलों और आनेवाले वर्ष का संकेत मिलता है। इन तीन दिनों तक चीफ के कदम जमीन पर नहीं पड़ते हैं, या तो वह केले के पत्ते पर अथवा लकड़ी के तख्ते पर अपने पैर रखता है। इस दौरान कोई उनसे नहीं मिल सकता। चौथे दिन चीफ का उपवास और त्योहार समाप्त होता है। त्योहार के तीन दिनों तक गाँव में उत्सव का माहौल रहता है। गीत, नृत्य, भोज और विभिन्न प्रकार की खेल प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं जिनमें हर उम्र के लोग शामिल होते हैंI
कांगचिंगबा (Kang Chingba)– कांगचिंगबा मणिपुर का एक महत्वपूर्ण हिंदू त्योहार है। यह उत्सव प्रत्येक वर्ष जून-जुलाई महीने में मनाया जाता है। यह पुरी की रथयात्रा के समान है, लेकिन रथ निर्माण की शैली पर मैतेई स्थापत्य कला की छाप है। ‘कांग’ का अर्थ पहिया होता है। भगवान जगन्नाथ को जिस रथ में ले जाया जाता है उसे भी ‘कांग’’ कहा जाता है। कांगचिंगबा त्योहार दस दिनों तक पूरे मणिपुर में मनाया जाता है। रथ में भगवान जगन्नाथ, उनके भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की काठ की मूर्तियाँ रखकर उनकी शोभा यात्रा निकाली जाती है। इस त्योहार को देखने और शोभायात्रा में शामिल होने के लिए पूरे मणिपुर से हजारों भक्त इंफाल में आते हैं और विशाल रथ को खींचते हैं। रथ को गोबिंदजी मंदिर से सनथोंग (महल के द्वार) तक लाया जाता है और पुनः उसी मार्ग से मंदिर तक वापस लाया जाता है। गोबिंदजी मंदिर के अतिरिक्त पूरे मणिपुर में कंगचिंगबा का आयोजन होता है, लेकिन परिवार के स्तर पर कंगचिंगबा का आयोजन गोबिंदजी मंदिर के आयोजन के बाद ही किया जा सकता है। कंगचिंगबा के आयोजन का इतिहास बहुत पुराना है। सर्वप्रथम कांगचिंगबा का आयोजन वर्ष 1832 ई. में राजा गंभीर सिंह ने प्रारंभ किया था। इसके बाद सात साल तक इस त्योहार का आयोजन नहीं हुआ। पुनः वर्ष 1840 में राजा गंभीर सिंह के निधन के बाद उनके बेटे चंद्रकीर्ति ने इस त्योहार का आयोजन किया। चार साल के विराम के बाद वर्ष 1846 ई. में पुरी में इस उत्सव का आयोजन किया गया। इस प्रकार मणिपुर में जगन्नाथ पंथ का आगमन हुआ और कंगचिंगबामैतेई हिंदुओं का सबसे बड़ा त्योहार बन गया। जहां भी रथ रुकता है वहां भक्तगण फल, फूल, अगरबत्ती से भगवान की पूजा करते हैं। आरती के बाद फल वितरित किए जाते हैं। लोगों का मानना है कि रस्सियों को पकड़ने और मूर्तियों के साथ रथ को खींचने का अवसर मिलने से सभी दुख और पाप दूर हो जाते हैं। इस विश्वास के साथ सभी क्षेत्रों के लोग रथ को खींचने के लिए दूर-दूर से आते हैं। प्रसाद के रूप में खिचड़ी का वितरण किया जाता है। कमल के पत्ते पर प्रसाद परोसा जाता है जिसके कारण प्रसाद का स्वाद बढ़ जाता है।
तस्वीर: विकीपीडिया से