रोटी और चाँद
तुम छत पे खड़े
निहार रहे थे चांद को
मैं आंगन में रोटी सेक रहा था
मेरी रोटी मेरा चाँद थी
तुम्हारा चाँद रोटी नहीं था
जब तुम छत से नीचे उतर गये
मैं रोटी प्याज लिए छत पे था
मैंने देखा चाँद को छत पे आते
मेरी रोटी को वह निहार रहा
रोटी में देखा अक्स अपना
उसे निहार निहार वह लौट गया
रोटी में चाँद सदा ही रहा
उफ! चाँद रोटी को तरसता रहा
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ओस की आत्मा
आज भोर में देख रहा हूं मैं
फूलों पर उतर रही ओस बूंदों को
कोई आहट नहीं, चुपके से
सिर्फ प्रेम को थामे
धीमे धीमे
फूलों को निहाल करती
दिव्यता भी ठीक वैसे ही
उतरती है हमारे भीतर
ओस की तरह
हां, इसका अहसास तब होता है
जब हमारे भीतर के फूल पर
वह दस्तक दे चुकी होती है
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घी
तब दो गायें हुआ करती थी हमारे घर
मां के हाथों बिलौने से निकला घी
गर्म रोटी की महक पर उतरकर
मं की ममता की तरह पिघलता था
हींग-छौंक की गर्म दाल पर तैरता
उसका तिरवाला
प्रेम द्रवित हो बतियाता था हमसे
कभी जब मेरे नथुनों में
टपकाती थी मां
घी की गुनगुनी बूंदें
लगता थादे देना चाहती है वह
अपनी बची खुची श्वासें भी मुझे
रात में मेरा सिर सहलाते हुए
दूध भरी गिलास में
उड़ेल देती थी वह
घी के साथ
ढ़ेर सारी दुआएं भी
पड़ोस की कमली के प्रसव में
रेशमा के निकाह में
खाली कर देती थी मां
अपने घी की पीपी
बदल गया है वक्त
सुनाई देने लगी है अब
वक्त की भयानक पदचाप
अब घी केवल आग भड़काने के काम आता है