वो एक समंदर था
जो दरिया में डूब गया
किसी को यकीन हुआ
किसी को नहीं हुआ साहिब!
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जुनूँ-ए-इश्क धुआँ सा उठा क्या दिल में
एक गुबार था
बस आँसुओं का
साहिब!
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तुम्हारी नजरों में
बुतपरस्ती ही सही
पर अपना किसी से
कोई करार तो था
साहिब!
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गुजरे वक्त की इक
फरियाद रह गयी
अब भी याद है वो मंज़र
साहिब!