जो लिखता…
जो लिखता नाभि से लिखता
भीतर की खदबद को लिखता
आंखी सच से बातें कर मैं
कलम से टपकी पीड़ को लिखता
पका जो आखर मुखर हो लिखता
सब कह दे उस मौन को लिखता
सलीब पे लटका स्वर पूज कर
मां शारद मर्याद में लिखता
लपक रही लब सीने को
उस शैतानी तासीर पे लिखता
मर जाता पर चुप ना रहता
अपने होने को होना लिखता
जिन कोनों में तम के जाले
उन्हें बुहार जोत पर लिखता
आयत-मंत्र ताक पे रख कर
किलकारी की गूंज पे लिखता
ईद-दिवाली गले मिले
उस प्रेम की कोंपल पर लिखता
भूख से जो भी बिलख रहा
मैं उसके निवाले पर लिखता
आधे जगत को मादा समझे
उस सोच पे अग्नि नोक से लिखता
वो दुर्गा बने वो काली बने
लहू-खप्पर मसि से लिखता
जो लिखता नाभि से लिखता
भीतर की खदबद को लिखता
आंखी सच से बातें कर मैं
कलम से टपकी पीड़ को लिखता
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सत्य बना त्रिशंकु
(संदर्भ – दिवराला सती घटना)
एक चौराहे पर खड़े सत्य ने
कलयुगी यथार्थ से पूछा-
दिवराला का रास्ता किधर है?
यथार्थ ने उसे नखशिख परखा-तोला
और ठहाका मारते हुए बोला
तुम कुछ भी हो सकते हो
लेकिन सत्य नहीं
क्योंकि जहां षड्यंत्री संस्कारों का
आसुरी आस्थाओं से गठबंधन हो
जहां सामंती संस्कारों की शिक्षा
जीवन संघर्ष का शौर्य नहीं
मिट्टी के साथ मृत्यु का वरण हो
वहां सत्य सती के आस पास नहीं
बल्कि लाखों प्रकाश वर्ष दूर
त्रिशंकु बना उस चिता पर
खून के आंसू टपकाता है
जहां राख की एक ढेरी के नीचे
दबे होते हैं अठारह बसंत
और सुनता है बर्बरता के नगाड़ों-मंजीरों के
वहशी शोर में खोई
अबला की उस आह को
जो मैं जानता हूं
मेरी दीमक लगी व्यवस्था को
एक दिन भस्म कर सकती है
लेकिन मैं आश्वस्त हूं
जब तक बर्बर मर्यादाएं
खड़गों से सुरक्षित हैं
तुम्हारे आदर्श अन्याय के
आघातों से ध्वस्त हैं
मेरी ही चलती है और चलेगी
इसलिए मेरे भाई!
यहां जो भी राम बनकर आता है,
मेरे मारीची छलावों में
भटक जाता है
और इस अंधे-बहरे चौराहे पर खड़ा होकर
सिसकती व्यथा को
अमृत चखाने के जुनून में खो जाता है
शायद इसीलिए
इस चौराहे से हर रास्ता
सिर्फ दिवराला को ही जाता है!