1.
वेदना, दुख, अश्रु को,
अभिशाप कहकर गान इनका,
मत करो अपमान इनका!
वेदना ही तो अहो! निश्चेष्ट मन की चेतना है।
है वही मानव यहाँ, जिसके हृदय संवेदना है।
कब हुआ ‘आनंद’ सबका, ‘वेदना’ सबकी रही है!
यदि छुड़ा लें हाथ इससे कौन फिर सच्ची सखी है।
मान कर भगवान का वरदान,
रखना मान इनका,
मत करो अपमान इनका!
दुख हमें परिपक्व करते और देते हैं सुदृढ़ता।
इसलिए तो बाँटने में कर रहे थोड़ी कृपणता।
क्या किसी की सांत्वना के मोह में दूँ भेद दुख का!
यह कभी संभव नहीं, मत पूछिए कारण विमुख का।
श्रेष्ठता की लालसा में,
चाहते हो दान इनका?
मत करो अपमान इनका!
कष्ट में हैं अग्रणी ये अश्रु हिय का आचमन हैं।
अश्रु तो अनुभूति की अभिव्यक्ति का माध्यम सघन हैं।
मात्र संचित निधि यही है, तुहिन कण दृग के न छीने।
अब न कोई पुतलियों से प्रेम का आधार छीने।
चाहिए सबको कि करना,
हर्षमय आह्वान इनका।
मत करो अपमान इनका!
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2.
लक्ष्य मेरा हिय
तुम्हारी भृकुटि का धनु, शर नयन द्वय
क्यों न चाहूँ यह पराजय?
मैं तुम्हारे दृष्टि शर से विद्ध होना चाहती हूँ।
प्राप्त कर तुमको, स्वयं को आज खोना चाहती हूँ।
मूल्य जय का इस विफलता के कहो सम्मुख कहाँ है।
‘अग्रगामी’ में भला ‘सहचारिणी’ सा सुख कहाँ है।
प्रेम के अद्भुत उदधि में,
आज सरिता का समन्वय!
क्यों न चाहूँ यह पराजय?
सौंपकर सर्वस्व भी उनके हृदय की ‘स्वामिनी’ का,
पद बड़ा गरिमामयी होगा, अहो इस मानिनी का!
है न ये अत्युक्ति इसमें देव की आभा दिखेगी।
प्रिय हृदय के वास में अलकापुरी भी लघु लगेगी।
है न कोई दूसरा,
ऐसा कहीं ऐश्वर्य अक्षय।
क्यों न चाहूँ यह पराजय?
जग कहे पगली मगर मैं, शक्ति को पहचानती हूँ।
किंतु मैं इन बंधनों को भी सुरक्षा मानती हूँ।
कर समर्पण हर्ष से स्वीकार कर लेना पराभव।
जानती हूँ प्रेम का द्योतक, विजय में है न प्राभव।
मन बना लो आज बन्दी,
सात जन्मों तक मनोमय,
चाहती हूँ मैं पराजय!