१.
श्रांति रण में धैर्य के धनु-बाण
त्यागोगे धनञ्जय!
हार मानोगे धनञ्जय?
वे भला भयभीत जिनके सामने हर भय झुका है।
वे जिन्होंने ‘भाग्य’ के आगे सदा ‘भुजबल’ रखा है।
देख जिनका शौर्य सब व्यवधान भी दम तोड़ते हों।
जो तिमिर में ‘दीप’ धरकर ‘भानु’ का भ्रम तोड़ते हों।
आज! हो निष्क्रिय स्वयं पर,
प्रश्न दागोगे धनञ्जय?
हार मानोगे धनञ्जय?
खिन्नता के सिंधु में मन व्यर्थ ही इतना प्लवित है!
‘आधि’ में रहकर बढ़ावा ‘व्याधि’ को देना उचित है?
आचरण की अग्नि में तप दिव्यता चुनने लगेंगे!
भीरु बनकर या सबल असमर्थता चुनने लगेंगे?
बाद क्या अनुयायियों को,
मुख दिखाओगे धनञ्जय?
हार मानोगे धनञ्जय?
हे परन्तप! जाग निज सामर्थ्य को पहचान लेना।
संयमित कर इंद्रियों को दास अपना मान लेना।
योग, ग्रह-नक्षत्र को भी मुट्ठियों में बाँध लेना।
काल रूपी विहग के ‘पर’ पर निशाना साध लेना।
जिस समय धर्मार्थ प्रत्यंचा,
चढ़ाओगे धनञ्जय,
जीत जाओगे धनञ्जय!
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२.
हे! मनस्वी मानवी,
अवबोध का आह्वान लाओ।
तुम नवल उत्थान लाओ!
रज सने पग धर गए वो थान देवालय बनाया।
राजमहलों में न सुख वनवास में एश्वर्य पाया।
तुम ‘उपेक्षा’ को ‘अपेक्षा’ में बदलना जानती हो।
हाय! फिर भी बन ‘दया का पात्र’ जीना चाहती हो।
पूज्य, विदुषी-वामिनी,
अभिनत्व का अवसान लाओ।
तुम नवल उत्थान लाओ!
सोचती हो? मूकदर्शक, ये तुम्हें सहयोग देंगे।
रक्त की अंतिम तुम्हारी बूंद भी वे सोख लेंगे।
बिन कहे कब स्वत्व पाया? माँगना पड़ता यहाँ है।
रो न दे शिशु पूर्व इसके क्षीर भी मिलता कहाँ है!
अब उठो! तेजस्विनी,
स्वयमेव का सम्मान लाओ।
तुम नवल उत्थान लाओ!
भावनी, भव्या, भवानी के हृदय में भय बसेंगे?
चक्षुओं में दीप जिनके क्या उन्हें ये तम डसेंगे?
काल के कटु पृष्ठ पर सम्भावनाएं जोड़नी हैं।
तुम वही जिसको समूची वर्जनाएं तोड़नी हैं।
“तमसो मा ज्योतिर्गमय” का,
हर्षमय जय-गान लाओ।
तुम नवल उत्थान लाओ!