१.
तुम कहीं दिखते नहीं जाने कहाँ हो,
ढूँढ आए हम क्षितिज के पार जाकर।
हम गए आकाश में देखा वहां पर
अप्सराएँ नृत्य करती खो रहीं थीं
हाँ मिलाने को हमें ही तो गगन में
तारिकाओं की सभाएँ हो रहीं थीं
छटपटाता एक मृग देखा वहीं पर
ढूंढता हर ओर कस्तूरी फिरे जो
नाभि में तेरी छिपा है मत्त परिमल
लौट आए हम विकल मृग को बताकर।
तुम कहीं दिखते नहीं जाने कहाँ हो,
ढूंढ आए हम क्षितिज के पार जाकर।
स्वर्ण सावन भी निकलकर जा चुका है
खूब काले मेघ मेरे द्वार बरसे
विश्व ने प्रत्यक्ष देखा चाँद द्विज का
देखने को मीत मेरे भाग तरसे
द्वार पर बैठे रहे बस राह तकते
हम तुम्हारे नाम की मेंहदी लगाए
पर प्रणय की ऋतु सजाने तुम न आए
ढूँढ आए हम समय के द्वार जाकर
तुम कहीं दिखते नहीं जाने कहाँ हो,
ढूंढ आए हम क्षितिज के पार जाकर।
पायलों के झांझरों के स्वर रुके हैं
कंगनों के शोर में व्यापी हताशा
दूर हो तुम दूर है सारा जमाना
पास आओ तो मिटे मन की निराशा
पास आओ धड़कनों में नाद लौटे
खिलखिलाए अब उदासी चौखटों की
पंथ में पग आहटों से प्रीत भर दो
काश लौटो सौ जनम का प्यार लेकर
तुम नदी में सागरों में भी नहीं थे
ढूँढ आए तटों के तीर आकर।
तुम कहीं दिखते नहीं जाने कहाँ हो,
ढूंढ आए हम क्षितिज के पार जाकर।
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२.
अंजुरि भर नैनों का शुभजल और नेहपूरित अंतस्थल
कहो युगपुरुष! क्या इतने से चरण तुम्हारे धुल जायेंगे?
यूँ तो गंगाजल से कुछ घट हम भी भरकर ला सकते हैं
किन्तु ज़रूरी नहीँ सदा बस ‘ध्रुवनंदा’ ही पाँव पखारें
‘शास्त्र उक्ति’ है पूजन में बस श्रद्धा होना आवश्यक है
चाहे जल सुरसरिता दे या चाहे दें नैना रतनारे
यही सोचकर हमने खुद को प्रेमतुला पर तौल दिया है
मन के भोजपत्र पर लिखकर एक वचन अनमोल दिया है
प्रश्न यही है क्या इतने से द्वार नेह के खुल जायेंगें?
कहो युगपुरुष!……
पूजन तो निश्चित करना है व्यवधानों से नहीं डरेंगे
आखिर सकल विश्व में हमको एक उदाहरण भी देना है
इच्छा की समिधाएँ ली हैं और कलश में द्वेष बहाये
अब मन में पावनता का इक नया आवरण भी मढ़ना है
इसीलिये हम अभिलाषाओं का भी तर्पण कर आये हैं
और छुपाकर अंतर्मन में मर्यादा का घृत लाये हैं
ज़रा बताओ क्या इस घृत से ही सब पातक जल जायेंगे?
कहो युगपुरुष!…..