अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संवैधानिक अधिकार बताया जाता है और यह है भी। परन्तु सच्चाई सुनने के बाद की तिलमिलाहट भी जगजाहिर है। आख़िर क्या किया जाना चाहिए? इन सब बातों का समाधान बिना चर्चा हुए निकल पाना संभव है क्या? संशय इस बात का भी उतना ही है कि चर्चा करने से भी कुछ परिणाम सामने आ सकेंगे। लेखकों की सरेआम ह्त्या होती है, उनके साथ मारपीट की जाती है, अपराधी खुलेआम घूमते हैं। तमाम शिकायतों के बावजूद कहीं कुछ नहीं होता। ऐसे में निराशा और क्षोभ से भर कुछ साहित्यकार दुखित हृदय से अपना पुरस्कार लौटाने का साहस करते हैं और चंद अति उत्साही लोग उन पर ऐसे टूट पड़ते हैं, जैसे ये पुरस्कार उन्हें उनका मुंह बंद करने के लिए दिया गया था। क्या 'पुरस्कार' पाने के बाद लेखक को उन सभी का ग़ुलाम बन जाना चाहिए, जिन...
प्रीति अज्ञात