हम चुप हैं, मौत के भय से! विरोधियों के दमन की प्रथा जो चल पड़ी है! 'मृत्यु' बिकाऊ है और बेहद आसान भी! पैसों की गर्मी ने, संवेदनाओं को सोख लिया है। रुपया ही बोलता है, वही चलता है! जीवन उसी को कमाने की मशीन जो बन चुका है! भावनाओं का मूल्यांकन, संबंधों की सुंदरता, बचपन की मासूमियत, किशोरों की ठिठोली और मन की संतुष्टि अब ज़रूरतों की बाढ़ में डूबकर अपने अस्तित्व की खोज में भटक रही है! यहाँ जमीन के लिए लड़ाईयां होती हैं, इस सच को जानते हुए कि एक दिन इसी जमीन के अंदर गाढ़े जाने वाले हैं, बम-विस्फोट की योजनाएं बनती हैं अपने ही देश को उड़ाने के लिए, कायदे-कानून की धज्जियाँ; खोए आदर्शों की तरह हर तरफ बिखरी दिखाई दे रही हैं।
बचपन चीखकर रोता है, एक बेबस कहीं बोझा ढोता है और काव्य की आँखों से दो बूँदें...
प्रीति अज्ञात