कविता-कानन
हो जाना चाहती हूँ इतना मजबूत
हो जाना चाहती हूँ
इतना मजबूत
कि कह सके वो,
अपने दिल का हाल
बहा सके अपने आँसू,
रो सके काँधे पर रखकर सर
वो जो रिसता है
हर क्षण उसके भीतर
तीव्र ज्वार भावनाओं का
उसे हिम शिलाओं पर बिछा
आनन्द ले सके
चंचल बयार का
वो जो दिखता कठोर है
दंभ भरता है
अपने पुरुषत्व का
क्या कोमल नहीं होता?
क्या उसके हृदय में वेदना नहीं?
शाश्वत है
उसका मृदु होना
किसी ओट में विलुप्त है
ज़री के पर्दों में क्या भेद नहीं होता?
मैं मख देना चाहती हूँ
उस भेद को,
जो उसके और मेरे मध्य है
और चाहती हूँ जीना
मैं भी कठोर जीवन
ये आँसू मुझे बोझिल कर जाते हैं
सब धुँधला-सा जाता है
और वहाँ मैं देख नहीं पाती
पीड़ा अपने प्रियतम की
विरक्त हो जाती हूँ
स्वयं से भी
और विषाक्त हो जाता है
सारा संवाद
तिमिर ही तिमिर व्याप्त हो जाता है
और श्याम वर्ण का सर्प
दंश देकर लुप्त हो जाता है
हो जाना चाहती हूँ
इतना मजबूत
कि समझ सकूँ
वेदना उसकी भी
पर क्या वो मुझसे
बाँट सकेगा अपनी पीड़ा!
कहीं उसका पुरुषत्व
चोटिल तो नहीं होगा?
क्या ये भेद स्त्री-पुरुष का
अनंत तक अपना दंभ भरेगा?
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जीने लगी हूँ मैं
ख़ुद की धड़कनें
सुनती नहीं अब
कि शोर अब अच्छा नहीं लगता
उनको ख़ामोश रहने की आदत है
और मुझे
वो ख़ामोशी सुनने की
सुबह चाय का प्याला
हाथ में लिए
उनकी नज़रें जब अख़बार पर होती हैं ना
सच कहूँ
उस लम्हे की लज्ज़त
लाजवाब होती है
वो हवाओं से होते हैं परेशान
कि सफ़हे रुकते नहीं हाथों में
और मैं
पंखे की रफ़्तार बढ़ाकर
थोड़ा करती हूँ उन्हें परेशान
वो होते हैं नाराज़
और जबीं पर उतर आती हैं लकीरें
ये नाराज़गी अच्छी लगती है मुझे
वो उलझते हैं जब मुझसे
मुझे अपना-सा लगता है
वो कहते हैं
मैं सुनती हूँ
नहीं…हमेशा नहीं सुनती मैं
थोड़ा तो झगड़ती हूँ
कुछ दिनों से
एक नई दुनिया बसाई है
रोज़ मिलती हूँ
जाने कितने नए चेहरों से
कुछ नक़ाब में रहते
कुछ झिलमिलाते पर्दे से झाँकते
कुछ एक मुकम्मल दास्ताँ लिए
कह जाते न जाने क्या-क्या
कुछ मुझ जैसे दोस्त
जो मुझे ही मेरी धड़कन से मिलवाते
बाद मुद्दत के
सुनी आवाज जो अपनी धड़कन की
देखो ना
जीने लगी हूँ मैं
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चिट्ठी तेरी जुगनू जैसी
चिट्ठी तेरी जुगनू जैसी
जब पढ़ती हूँ
दिल रौशन हो जाता है
स्याह रातों में
जल उठते हैं दीये
और त्योहार दिवाली हो जाता है
तेरी चिट्ठी खुशबू जैसी
जब पढ़ती हूँ
सौंधा-सा सब हो जाता है
सूखी धरती पर
बारिश की बूँदों-सा
मौसम सावन हो जाता है
तेरी चिट्ठी रंगों जैसी
जब पढ़ती हूँ
रंग खुशियों का घुल जाता है
सफेद सफ़हे
भीग उठते हैं
और फाल्गुन रंग खिल जाता है
तेरी चिट्ठी सर्द हवाओं जैसी
जब पढ़ती हूँ
स्पन्दन तन में हो जाता है
गर्म लिहाफ़ लिए
अँगीठी पर बैठी
महीना दिसम्बर हो जाता है
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प्रेम का पर्याय आज सार्थक है
आज इच्छाओं का अस्तित्व
विस्तार नहीं
अति मौन है अम्बर भी
चंदा हल्की-सी मुस्कान लिए
गुनगुना रहा है एक सपना
ढलती उम्र का सपना
क्या है जो गुनगुनाता है वो
गुनगुनाता है मुस्कराकर
हाँ, मुस्कुराना स्वभाविक है अब
अब मन शांत है
कोई क्लांत नहीं
कोई विरह की अग्नि नहीं वहाँ
विरह में भी आनंदित होता
मधुकर को भी कोई कामना नहीं रही अब
प्रेम से उसका परिचय
अब हास्य परिहास का विषय नहीं
वो डूब चुका है बंसी की धुन में
उसकी राग में नृत्य करते हुए
उसके कपोल पर जो लालिमा है
लरज जाती है कभी-कभी
उसे स्वयं का सानिध्य अब अति प्रिय है
मुख मंडल की आभा
उसका तेज, अब अति विस्तार है
वो टिमटिमाते तारों को
जीना सीख चुका है
अब रातें काली स्याही-सी नहीं लगतीं
नहीं डंसती नागिन जैसे
जीवन व्यर्थ नहीं
अब सार्थक-सा लगता है
अधरों पर मुस्कान का पर्याय
अब भिन्न है
अब भिन्न है हृदय की जिरह
मकरंद प्रिय है अब भी
पर ललक नहीं हासिल की
मन स्थिर है
मन शान्त है
मन एकाग्र है
वो पतित स्वप्न अब उसे नहीं आते
जो अंधेरे का विस्तार कर जाते थे
काँटों से चुभते थे
अग्नि-सा जलाते थे
वो स्थिर है
अब अग्रसर है वास्तव में प्रेम पथ पर
अब उसके पास समग्र प्रकाश है
जिससे अलौकिक उससे स्वप्न का तेज
स्थाई रूप से उसमें समा चुका है
अब वो अभिशप्त नहीं
ढलती उम्र के स्वप्न का तेज
निश्चल चमक रहा है
प्रतिफल उसके कपोल पर
और प्रेम का पर्याय आज सार्थक है
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मन के किवाड़ पर
मन के किवाड़ पर
साँकल लगी नहीं
वो निर्बाध्य
कहीं भी आता जाता है
निर्भय है
मुखर है
कुछ भी बोलता है
उसे घुप्प अँधेरे से भय नहीं
उसे प्रकाश की चाह नहीं
वो अग्रसर है उस पथ पर
जिसकी चाह
की थी कभी उसने
जिसकी चाह
अभी है उसको
वो तर्क-वितर्क से परे है
वो आहत नहीं होता वहाँ
ये पृष्ठभूमि मन की
स्वरचित है
चलायमान है
स्वतंत्र है पूर्णरूपेण
कभी बाल क्रीड़ा कर हर्षित होता
कभी वात्सल्य से देखता ख़ुद को ही
वो सत्य-असत्य से परे है
जानता है
भेद दोनों के मध्य
कभी निर्लिप्त है
कभी निर्विकार है
तो कभी खुद को ही
होकर लोलुप देखता
मन की किवाड़ पर
साँकल लगी नहीं
वो मद्धम मुस्काता है
फटी चादर मन की सीता है
होकर अधीर मृदु क्षणों की
कड़ियाँ बनाता है
और बाँधकर स्वयं को
अपने ही मोहपाश में
उन्मुक्त हो उड़ता है
वहाँ
जहाँ कोई शिकारी
उसकी संवेदना को
किसी जाल में नहीं कसता
नीला आकाश
जहाँ तक दृष्टि पहुँचे अपना है
मन निश्छल है
कैसे कह दूँ
वो खुशियों को ही तत्पर है
मन के किवाड़ पर
साँकल लगी नहीं
वो निर्बाध्य
अपने लिए अपनी खुशियाँ चुनता है
– शिल्पी अग्रवाल