कविता-कानन
हाशिये पर
कभी मैं
घर की धुरी थी
घर मेरे चारों ओर सिमटा था
मैं ही घर थी
सुकून नहीं था
पर अपने होने का
एहसास था
सब मुझ मे थे
मैं सब मे थी
सुबह से शाम
अच्छी बुरी
सबकी ज़ुबान पर
मैं ही थी
घर मेरे चारों ओर घूमता था
वक्त हाथ से फिसलता रहा
पता ही नहीं चला कि
कब धुरी से हटकर
हाशिये पर आ गई
अपना सब कुछ लुटा कर
खाली हाथ
दरवाज़े पर आ गई
दीवारों मे सिमट गई
यादें बनकर रह गई
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फिर सुधियों के गाँव
पास नहीं है फिर भी
कितना प्यारा लगता अपना गाँव
सोते जगते या बतियाते
सुधियों मे बसता है गाँव
भूले नहीं भूलती
वह पीपल की छाँव
पनघट पर पैजनिया छमछम
घूंघट मे सहमे से बोल
रम्मो कम्मो चुहल मचाती
खोलें ढोल की पोल
मेंहदी बोले, महावर गाए
अक्षत चावल ले कर आएँ
प्यारे मीठे गीत सुनाए
दूल्हा जब कुएं पर आए
नहीं भूलती वह पीपल की छाँव
सुधियों मे बसता है गाँव
दूर-दूर तक उड़ती
ताज़ा गुड़ की गंध
कितना मन ललचाती थी
भुट्टे की सोंधी-सी गंध
चूल्हे पर सिकती
फूली रोटी की वास
बुझती थी कुएं के
ताज़ा पानी से ही प्यास
ख़ूब लुभाती थी
अमराई की शीतल छाँव
चंदा उगता और नहाते खेत
चाट पकौड़ी के चटखारे
जब लगती थी पैंठ
धानी चूनर, हंसुली, चूड़ा
झमझम करती पाज़ेब
वह बैलों की घंटी
धूल उड़ाती गाऐं
शाम हुई और
खड़े-खड़े बछड़े रम्भाएं
सुधियों के द्वारे आया है
मेरा प्यारा गाँव
ढोल नगाड़े, ठप्पे गूंजे
घर-घर ख़ुशी हज़ार
छोटे बड़े सभी के
यहाँ थिरकते पाँव
इतना प्यारा मेरा गाँव
– सुधा गोयल