गीत-गंगा
हम बड़हल के फल जैसे
खण्ड-खण्ड भीतर कोए में बँटे हुए,
हम बड़हल के फल जैसे बेडौल रहे।
अपने अंतस्तल में उभरी बेचैनी,
अनदेखा करते दोपहरी धूपों में।
चिंतन करते कब बिखरे संबंधों पर,
टर्र-टर्र करते रहते मेढ़क कूपों में।
हम सहमे-सहमे बस देखा करते हैं,
कब तक आबंधों की ये दीवार ढहे।
दोष मढ़ेंगे हम भी तो आखिर किस पर,
हम ही जब पहचान न पाए ग़लत-सही।
मन से मन के इस दुराव का पूछो तो,
मौलिक कारण संवादों की कमी रही।
हमने तो धर ली अधरों पर ख़ामोशी,
पर नयनों को चुप रहने की कौन कहे।
शांति यज्ञ में जो पढ़ना था पढ़ न सके,
उच्चारित कर बैठे हम किन मंत्रों को।
पता नहीं ये किन आवेशों में बहकर,
हवा हमीं ने दे दी इन षड्यंत्रों को।
अब तो झुलस गई कितनों की त्वचा बहुत,
आखिर कोई कितना आतप और सहे।
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हाले-दिल पर किसी को बताना नहीं
चाहते हो जिसे टूटकर चाहना,
हाले-दिल पर किसी को बताना नहीं।
शोख चंचल अदाएँ दिखाकर तुम्हें,
कोरे मन को तुम्हारे लुभाएँगे ही।
ठेस दिल पर लगाएँगे वो बाद में,
हाँ, अभी प्रीत के गीत गाएँगे ही।
चेत जाओ अगर चेतना हो जगी,
ऐरे-गैरों से दिल तुम लगाना नहीं।।
यूँ ही चलते चले जो गये तुम तो फिर,
राह में छूट जाएँगी मंज़िल बहुत।
मोड़ पर एक ऐसे मिलोगे खड़ा,
लौटकर आने में होंगी मुश्किल बहुत।
चाँदनी की चमक में बहक कर कहीं,
वापसी की डगर भूल जाना नहीं।।
दर्द अच्छा है दिल का दबा ही रहे,
दिल हो बिलकुल मुकद्दस ज़रूरी है ये।
क्या कि हम वश में औरों के हो जाएँ जब,
हम पे ख़ुद का चले वश ज़रूरी है ये।
प्रेम है तो रटो दिल में रटते रहो,
पर कभी होंठ पर नाम लाना नहीं।
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मेघनाद-अनुताप
हे प्राण पास आकर
पलकें उठा-उठाकर,
ये बार-बार बोलो अम्बर निहारना क्या।
मर कर न मर सकूँगा,
किरदार में रहूँगा
मैं हार भी गया तो ये हार हारना क्या!
कर्तव्य है ये मेरा इस पल धनुष उठाना
संभव नहीं है अब तो इससे विमुख हो जाना
मैं सुन नहीं सकूँगा कायर कहे जमाना
तुम ही प्रिये कहो कुछ, यूँ मन को मारना क्या
हो दूर क्यूँ खड़ी तुम आओ करीब आओ
मस्तक पे आज अंतिम रोली ज़रा लगाओ
है दीप बुझने वाला दीपक न अब जलाओ
यूँ आख़िरी सफर से, निष्फल पुकारना क्या
अवहेलना पिता की मैं कर नहीं सकूँगा
गर स्वर्ग भी मिले तो मिट्टी-सा त्याग दूँगा
मैं पुत्र धर्म पथ से पीछे नहीं हटूँगा
ये मेघनाद-प्रण है इस पर विचारना क्या
– सत्येन्द्र गोविन्द