कविता-कानन
सफ़र
यह सफ़र कैसा
सोचती हूँ
कहीं पहाड़,
कहीं खाई,
कहीं समुद्र गहरा,
कहीं मीलों लम्बी सड़क,
ऊपर नीली छत
रहती जो साथ हमेशा
बादलों की बदलती आकृति
देखती हूँ
बदलते दृश्य प्रकृति के
चाँद-सूरज की आँख मिचौली
चलती थी
चलती है
चलती रहेगी
ऊँचे पर्वत से सुनती हूँ पुकार
गहरी खाई बुलाती अपने पास
आकाश अपनी ओर खींचता है
और मैं ज़मीन पर चल रही हूँ
समय चक्र के साथ
अपनी गति
सफर तो करना ही होगा
आखरी पड़ाव तक!
**********************
यादें कहीं स्वप्न तो नहीं
यादें कहीं स्वप्न तो नहीं
बीते हुए कल की यादें
साथ बिताए पल की यादें
पर
आज वे यादें स्वप्न ही तो हैं
जो हकीक़त थीं कल
आज यादें बन सामने आती हैं
यादों को गर याद करें तो
आज से कितनी भिन्न लगती हैं वे
साथ-साथ बिताए पलों की सौगात लगती है यह
पर
आज दो किनारों की तरह
नज़र आ रही है
कल और आज के बीच
एक लम्बी राह,
एक लम्बा समय अंतराल
क्या कहों उनको
तुम ही बता दो
कल जो अपनी बातों से
अपने होने का एहसास करवाते थे
पर
आज खामोश हो गए हो
दूर से बस देखती रहती हूँ
ध्रुव तारा बन जाने को दिल करता है
तब
शायद कभी तुम देख लोगे
और मैं एक स्वप्न बन
इन यादों का हिस्सा बन जाऊँगी
पर
आज तो तुम भी हो
मैं भी वही हूँ
पर बीच में हैं
ये यादें
और एक स्वप्न
– कल्पना भट्ट