कविता-कानन
स्वाद
माँ की बनाई ‘बड़ियाँ’
आज भी महकती हैं
जीभ के स्वाद-संसार में.
अब नहीं बना पाती, माँ !
पापड़ -अचार- बड़ियाँ
टटोलती रहती है समय की कड़ियाँ
समय ने सबको ‘दलहन-सा’ पीस दिया है
पर; फ़िर भी, नहीं मर पाया स्वाद
आँसूओं की सिंचाई और आशीषों का खाद
आज भी रिसने से बचा लेता है …. अपवाद
जब—कभी भी माँ के हाथ चूम लेता हूँ
तो; हर स्वाद हरा हो जाता है.
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रेत—घड़ी
पिताजी के पास एक घड़ी थी
जो, पूरे घर की हथकड़ी थी
मज़ाल है, ‘वक़्त’ इधर से उधर हो जाए !
पिताजी के बाद घड़ी तो वही है
मगर, गुमसुम उदास खड़ी है
समय के सन्नाटे में डूबे हुए हैं, हम
बहानों के सन्निपात से ऊबे हुए हैं, हम
अब हम व्यस्तता में घड़ी नहीं देख पाते
घड़ी—घड़ी देखती रहती है, घड़ी हमें
सूनी दीवार पर लटके हुए खड़ी-खड़ी
वक़्त और रफ़्तार का यह संतुलन कितना भयावह है ?
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आदतन
“बड़ी गंदी आदत है, तुम्हारी !
यूँ सोफ़े पर लेटने की”
ठीक सामने वाली कुर्सी पर बैठते हुए उसने कहा
और, मेरे पैर अनायास ही सिकुड़ गए.
शब्द, ‘साधना’ में और ‘मौन’ साधने में कट गया
समय, ‘समझ’ की गुत्थियाँ सुलझाने में ख़प गया.
अब, जबकि;
हम पारंपरिक रूप से ‘बंधे’ हुए हैं
सुलझे हुए हैं, सन्मुख हैं, सधे हुए हैं
‘वह’ सोफ़े पर लेटी है, आराम से
और, मैं! कुर्सी पर ‘सावधान’.
गठबंधन के परिणाम सदैव ही सकारात्मक नहीं होते हैं.
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सन्दूक
माँ ने एक सन्दूक सहेज रखा है!
चाबी बंधी है, क़मर की गिरह से.
मैं खीझता हूँ, सन्दूक पर
और, ललचाती है पत्नी चाबी पर.
माँ!
सब समझकर भी मुसकुराती रहती है
कभी खोलकर सन्दूक नहीं दिखाती है.
पता नहीं
सूने क़मरे के मरते ऊजाले में
क्या टटोलती है ? क्या सहेजती है??
आज, माँ नहीं है!
सन्दूक है हमारे पास
और, चाबी भी कहीं यहीं आसपास.
उत्सुक पत्नी ने सकुचाते हुए
झटके से सन्दूक खोल ही दिया
मेरी मौन स्वीकृति को तौल ही लिया.
एक़बारगी, चौंक ही उठा मैं!
पहचानी गंध से गमक उठा घर
कुछ सजीले कपड़े, ढ़ेरों टूटे खिलौने और,
‘सपनों की सीली गठरी’ छितरा गई आसपास
मेरा ‘बचपन’ बिख़रा हुआ था अनायास.
– अनुपम त्रिपाठी