कविता-कानन
स्मृतियाँ
गहरे हृदय-सागर तल में
बिखरी पड़ी हैं
सीपियों-सी
स्मृतियाँ
लोहे के पुराने संदूक में पड़ी
डायरी के पन्नों के बीच
पीला पड़ा
मिला है उसका पहला प्रेम-पत्र
उसमें दबे सूखे गुलाब की
सुगंध लिए
सारे शब्द उछल कर
बाहर आ नृत्य करने लगते हैं
डाल देते हैं डेरा
मेरे ईर्द-गिर्द
भाव विभोर हो
गले लग जाते हैं वे मेरे
पत्र में लौटने से
इंकार कर देते हैं वे
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धोरों की धड़कन
धोरों* की तपन ने दिया है
अकूत धैर्य, अतुल्य शौर्य
ताम्र को वर्ण
ज़मीर को स्वर्ण
मर्यादा की पाग*
और भीतर की आग
ये रेत के टीबें नहीं
युगों पुरानी दबी क्राोधाग्नि के
आणविक कण हैं
कभी रहे अथाह सागर की
विरहाग्नि से घटित अद्भुत क्षण हैं
इनकी छाती पर अटल सत्य-सी खड़ी
खेजड़ी* के प्रस्फुटन ने दी है हमें
होठों पे मुस्कान
संघर्ष की आन
आज पूनम की रात
चांदनी की डोली पे सवार
धीमे-धीमे उतर रही है
इन धोरों की लहरों पर मांड राग
एक बोरड़ी की छांव तले
इमरती सींवण* की ओट में
अभी-अभी उतरा है
एक गंधर्व प्रेमी युगल
गोडावण* बन
बैठेे हैं यहीं कहीं
धोरों की ढ़लान पर
एक-दूजे का आईना बने
ढोला-मरवण, मूमल-महेन्द्रु
धोरों पर मढे़ं दौड़ती गूंगी* के
पैरों के ये निशान नहीं
शायद अभी-अभी राधा
कृष्ण के संग हो ली है
या उनके दिव्य प्रेम की
यह कोई रंगोली है
धोरे=टीबें, पाग= पगड़ी, खेजड़ी= एक वृक्ष, सीवण= मरुस्थलीय घास
गोडावण= दुर्लभ पक्षी, गूंगी= मादा-कीट
– मुरलीधर वैष्णव