कविता-कानन
स्मृति
आज कई दिनों बाद
स्मृति के जादूगर ने
पलट डाले
ज़िन्दगी की किताब के कई पृष्ठ
वक़्त की स्याही से लिखे
उन पन्नों पर दिखे
अठखेलियाँ करते शब्द
अनुशासित भाव
कुछ स्पंदित क्षण
सूखे गुलाब के निशान
और
आँखों की नमी से धुले
तुम्हारे ख़त
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दस्तक
मेरा घर
आज भी है इंतज़ार में तुम्हारे
आईना
सोलह सिंगार किये
तलाश रहा है कब से
अपनी छवि को
चौखट
चौंक उठती है
हर आहट पर
दरवाज़ा
पीटता रहता है
ख़ुद ही अपना सीना
खिड़की
पर्दे की झिलमिल ओट से
निहारती रहती है गली को प्रतिदिन
और दीवारों ने तो रो-रो कर
उभार लिए हैं अपने चेहरों पे
दरारों के कई निशान
रौशनदान
सुबह की नर्म किरणों के साथ
ढूँढता है तुम्हारी ख़ुशबू
छत
आसमान सी अपनी बाँहें फैलाये
आतुर है भरने को तुम्हें
आ जाओ प्रिय!
यह घर भी उदास है तुम बिन
अब और कितना इंतज़ार
एक दस्तक दो न!
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क़ैद
तुमने न जाने क्या सोचकर
मुँह फेर लिया
और बंद कर लिए
अपने हृदय के कपाट
मेरे लिए
पर मेरी मासूम-सी चाहत ने
हार नहीं मानी
कभी तुम्हारी आँखों की खिड़कियों से झाँक
तुम्हारे प्रत्युत्तर का
इंतज़ार करती रहीं
तो कभी
शब्दों की सीढ़ी के सहारे
तुम्हारे दिल के आँगन में
उतरने को प्रयासरत रहीं
पर न तुमने
अपनी ज़िद छोड़ी
न मैंने अपनी चाह
कितना भी छुपाना चाहो
नहीं बच सकते
क़ैद कर लिया है मैंने तुम्हें
अपनी यादों में
और तुम्हारी भाव-भंगिमा,
आचार-विचार एवं शब्दों को
अपनी रचनाओं में
जिनसे जब चाहूँ मिल सकती हूँ मैं
बिना किसी प्रत्युत्तर की प्रत्याशा में
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मन्नत का धागा
मन्नत के धागों में
बाँध दिया है तुम्हें
और हर फेरे के साथ
बाँध रही हूँ एक गाँठ
हमारे प्यार की लंबी उम्र के लिए
हमारे अटूट विश्वास के लिए
हमारी दीवानगी के लिए
हमारे एक-दूजे के प्रति
समर्पण के लिए
हमारी मुस्कुराहटों के लिए
बदनज़र से हमारे प्यार की रक्षा के लिये
और अंतिम फेरे में चाहती हूँ लपेट लेना
ख़ुद को ही तुम्हारे संग
ताकि जी सकूं हर साँस
रहकर तुम्हारे क़रीब
और
मन्नत पूरी होने में रह न सके
कोई भी दूरी
– डॉ. आरती कुमारी