कविता-कानन
स्टेशन और लालटेन
फिर स्टेशन पर
अनवरत एक सफ़र
हिलते हाथ, नम आँखें
अभी भी नम करती हैं
मैं वहीं हूँ, वैसी ही अभी भी
पर स्टेशन बदल गया है
कुछ लोग इस रफ्तार से जाते हैं
कि आने के रास्ते ही नहीं बचते
एक डाकिये ने कहा कि अब
डाकखानों में कोरे ख़त आ रहे हैं
अब वह भी बस ख़ामोशियों की
पदचाप ही सुन रहा है
क्योंकि एक जाने वाले की
आवाज़ें किसी तक नहीं पहुँची
और वह चला गया अपनी
अनहद विश्राम यात्रा में
आज भ्रम था या एकाएक तुम दिखे
संवेदनाओं की भारी गठरी समेटे
अपने आसपास मानसिक
ग़रीबों के कहकहों से व्यथित
बोलो! सही समझा ना मैंने
सोचा कि तुम्हें कहूँ जाओ मित्र!
मैं यह लालटेन यहीं छोड़ रही हूँ
यह स्टेशन भी छूट रहा है
कभी तुम यहाँ आओ तो रोशनी
या अलाव के बिना मत आना
कहीं मेरी छोड़ी हुई तन्हाई
तुम्हें तंग न करे
सुनो! जाने से पहले तुम भी
लालटेन यहीं छोड़ जाना
कभी कोई राहगीर इधर से गुजरे
या कभी ‘मैं’ या कभी ‘तुम’ का
आना जाना यू हीं हो, उस वक्त
रोशनी तो चाहिए ना
क्योंकि अंधेरे में बिसरे चेहरे
बे-हिसाब नज़र आते हैं।
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कण्डाली की झाड़
सुंदर आवरण में लिपटे झूठ
केदार नाथ आपदा में
तुम्हें विदा कर दिये थे
बहा दिये मन के पत्थर
जब बादल फटे एक रोज़
यूँ बरसे लगा कि
पत्थरों में असंख्य छेद हो गये
तब बरसों बोझ से दबा हुआ
आसमान रिक्त हो गया
किन्तु फिर-फिर
हरी हो जाती है त्रासदी
उलझे दुखों के ताने-बाने
कण्डाली की झाड़-सी
उग आती है अनायास
तब लगता है कि कैसे
एक हरा पेड़ गले लगा लेता है
प्रेम समझ कर
एकाएक चढ़ आयी मोटी हरी
जंगली बेल को
फिर एक दिन बेल लपेट देती
उसको सर्वांग तक, नहीं छोड़ती
सूखने की हद तक
ऐसे ही कुछ लोग जीवन में
छलावे से दस्तक देते हैं
और ता-उम्र शूल बन
साँसों की डोर टूटने तक
जीवन में पल-पल
घटित होते हैं
दुर्घटनाओं की तरह।
– नीलम पांडेय नील