गीत-गंगा
सुनो जो मैं तुम्हें बतला रहा हूँ
वो सुनो, जो मैं तुम्हें बतला रहा हूँ सिर्फ़
बाकी चुप रहो
घोषणा जब है कि सूरज आयेगा
तो आयेगा
कब आयेगा? ये प्रश्न मत पूछो
मखमली क़ालीन पे सबको चलाया जायेगा
वो वक़्त अब
कब आयेगा? वो वक़्त मत पूछो
मैं तुम्हारे ज़ख़्म को सहला रहा हूँ सिर्फ़
बाकी चुप रहो
स्वप्न जोड़ो, स्वप्न तोड़ो, स्वप्न ओढ़ो,
कुछ करो, या
स्वप्न का बिस्तर बनाओ लो तुम
हम लुटाते जा रहे रंगीनियाँ, चारों तरफ
पालो उन्हें
लूटो दबा के, मुस्कुराओ तुम
मैं तुम्हें दे झुनझुना बहला रहा हूँ सिर्फ़
बाकी चुप रहो
ज़िन्दगी को, महकने दो वर्जनाओं में
उन्हें आकार
देकर क्या करोगे तुम
पृष्ठ कोरे पे बना के दे दिया है एक रेखाचित्र
रंगे भी हम?
बताओ क्या करोगे तुम?
मैं फ़िज़ाओं में तुम्हें टहला रहा हूँ सिर्फ़
बाकी चुप रहो
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क्या नया है? बोलिए……!
क्या नया है? बोलिए!
अख़बार में हम क्या पढ़ें?
कुछ डरी, कुछ जल मरी होंगी
नवेली डोलियाँ
कुछ मजूरों पर चली होंगी
पुलिस की गोलियाँ
तस्करों के साथ कुछ
अफ़सर घिरे होंगे बड़े!
खलबली-सी मच गयी होगी
विदेशी तोप में
देश का मुखिया घिरा होगा
नये आरोप में
फिर कहीं फुफकारते
होंगे कुढ़े अफ़सर बड़े!
चोरियाँ, डाके, धमाके बम के
हड़ताल के
मुँह कुछ काले हुए होंगे
सफेदीलाल के
मुख्यपृष्ठों पर खबर
होगी कि सौ घायल पड़े!
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वो कच्चे घर का मीठापन
इस बेरुख मौसम से, आहत है अन्तस
वही पुराने सहज सुलभ दिन, लौटा दो
वो भोली भाली-सी, सहज
सुलभ बातें
न दुराव था, न छल, न थी
प्रतिघातें
सच्चे मित्र हितैषी थे हर सुख दुख में
जिसमें न थी चुभन, न दुश्मन, लौटा दो
रिश्तों में मिश्री जैसा
मीठापन था
कमरों से गलबहियाँ करता
आँगन था
जहाँ नमन कर, ढेर दुआएँ पाते थे
वो बूढ़े बरगद वाले क्षण, लौटा दो
चौपालों के शोर-शराबे
मेले थे
कहाँ वहाँ हम अब-से, निपट
अकेले थे
अब तो घर बस, दीवारों से लगते हैं
वो कच्चे घर का मीठापन, लौटा दो
रूखी रोटी थी पर निश्छल
सच्चे थे
सबके मन, भोले मन वाले
बच्चे थे
फूटी कौड़ी भी इज़्ज़त से जीती थी
अगर हो सके तो भोलापन, लौटा दो
– कृष्ण भारतीय