नवगीत
साँझ सयानी जल्दी आओ
सूरज दीदे
फाड़ तक रहा
संध्या रानी मुझे बचाओ
मैं चरवाहा भटका दिन-भर
लेकिन छाँव न पाई पिन भर
आफताब यह बड़ा संगदिल
दूर नहीं हटता है छिन-भर
हे देवी!
तुम तारों वाली
नीली छतरी ले आ जाओ
चाट गया जल, जल-जल तापक
घास चर गईं किरणें घातक
जान हथेली लिए फिरेंगे
प्यासे ढंगर-ढोर कहाँ तक?
कान बंद
मत करो सुकन्या!
मानो बात रहम दिखलाओ
दहक रहे हैं दिन भट्टी बन
भून रहे बेखता प्राण-तन
खाल खींच खुशहाल हो रही
रह-रह धूप हठीली बैरन
ऐसे में
हे साँझ-सयानी!
किसे पुकारूँ तुम्हीं बताओ
अग्नि-बाण बरसे अंबर से
अग्नि-बाण
बरसे अम्बर से, पर
श्रम जीवन दौड़ रहा है
डटा हुआ है मंगलू मोची
घने पेड़ के छायाघर में
आए आज शरण में इसकी
घायल जूते भर दुपहर में
अर्द्ध-वसन
तन, पर सीवन से
उनका जीवन जोड़ रहा है
देख घाट पर धरमू धोबी
ओसारे पर ननकू नाई
गुमटी पर गुरमुख पनवाड़ी
भट्टी पर हलकू हलवाई
धूप हुई
हैरान, किस तरह
पलटू पत्थर तोड़ रहा है
खेत हुए हैं रेत-रेत सब,
अर्ज़ी उनकी वापस आई
फरियादें जब रद्द हो गईं
हर क्यारी जल-जल मुरझाई
हलक खुश्क
है पर हल लेकर
हरिया गात निचोड़ रहा है
सच कहा करती कलम है
सच कहा
करती कलम है
गीत, जन के जागरण हैं
खोल गाँठें गुत्थियों की
हल पलों में ढूँढ लाते
बोटियाँ ज़ुल्मों-सितम की
काट-कौवों को खिलाते
चाट यदि जन के सभी हित
हो हकीकत, चाहे भूगत
गुप्तचर होकर निडर ये
खंदकों से खींच लाते
और
अनशन छेड़ देते
सुर्खियों पर आमरण हैं
ये नहीं डरते अगरचे
फाँस-फंदा पास आए
हो मुखर करते बगावत
यदि इन्हें ताकत दबाए
जानते हैं, किस तरह, पर
दें कतर पापी-छलों के
ज्यों न फिर जंजाल बन
उगता सितम आकार पाए
रक्त भर
चलती कलम जब
गीत करते जीत-प्रण हैं
गाँव कुछ यादें दिला रहा है
ओ निर्मोही! तुझे गाँव कुछ
यादें दिला रहा है।
कर्ज़ यहाँ का माथे धरकर
तूने शहर बसाया
उन प्रश्नों को कुछ जवाब दे
जिनका गला दबाया
भला किसलिए इस आँगन से
तुझको गिला रहा है?
खूँटा घर से उखाड़ अपना
बाहर जाकर गाड़ा
मीठी वंशी भूल बेसुरा
पीटा वहाँ नगाड़ा
जुड़ा जन्म से जो बंधन, क्यों
उसको ढिला रहा है?
जाग ज़रा भी आब शेष है
यदि तेरी आँखों में
तोड़ तिलिस्मी पिंजड़ा आजा
बल लेकर पाँखों में
जिस माटी ने पाला, क्यों गम
उसको पिला रहा है?
माँ
ज़िक्र त्याग
का हुआ जहाँ माँ!
नाम तुम्हारा चलकर आया।
कैसे तुम्हें रचा विधना ने
इतना कोमल इतना स्नेहिल!
ऊर्जस्वित इस मुख के आगे
पूर्ण चंद्र भी लगता धूमिल।
क्षण भंगुर
भव-भोग सकल माँ!
सुख अक्षुण्ण तुम्हारा जाया।
दिया जलाया मंदिर-मंदिर
मान-मनौती की धर बाती।
जहाँ देखती पीर-पाँव तुम
दुआ माँगने नत हो जाती।
क्या-क्या
सूत्र नहीं माँ तुमने
संतति पाने को अपनाया।
गुण करते गुणगान तुम्हारा
तुमको लिख कवि होते गर्वित।
कविता खुद को धन्य समझती
माँ जब उसमें होती वर्णित।
उपकृत हर
उपमान तुम्हीं से
हर उपमा ने तुमको गाया।
चाह यही हर भाव हमारा
तव चरणों में ही अर्पण हो।
मातु! कलेजे के टुकड़ों को
टुकड़ा टुकड़ा हर इक गुण दो।
हम भी
कुछ लौटाएँ तुमको
जो-जो हमने तुमसे पाया।
– कल्पना रामानी