नवगीत
समाचार हैं रोज़ लाज के
घेरे खड़े गीत को, साधो
हाट आज के
क्या करिये
नकली चेहरे- नकली बातें
धर्म वक्त का सिर्फ़ ठगी है
किसने बेचे कितने सपने
इसी बात की होड़ लगी है
वही गुणी
जो करते धंधे पर अकाज के
क्या करिये
चतुर महाजन हुए महाकवि
बेच रहे हैं लय-छंदों को
बड़े शाहजी साध रहे हैं
विश्वहाट के ही फंदों को
हमें सुनाते
झूठे किस्से रामराज के
क्या करिये
सीधा-सच्चा गीत दुखी है
देख तमाशे सभागार के
रास नहीं आते हैं उसको
अबके मौसम ये उधार के
आते घर से
समाचार हैं रोज़ लाज के
क्या करिये
नहीं रहे
मन में विचार अब लोक-लाज के
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यही समस्या
दूरदृष्टि से
देख रहे हम घटनाओं को
यही समस्या
संजय होकर जीना
साधो, बहुत कठिन है
हाट-लाट की माया भी तो
हुई गझिन है
पोस रहे हम
उलटी-सीधी इच्छाओं को
यही समस्या
घर-घर हुई महाभारत को
देख न पाते
जोड़ रहे हम
दूर देश से रिश्ते-नाते
बीज रहे हम
अनजाने में विपदाओं को
यही समस्या
रामराज का आश्वासन दे
हमें छल रहे
नाक-तले शाहों के हैं
अपराध पल रहे
खोज रहे हम
केवल दैहिक सुविधाओं को
यही समस्या
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कोहरा है मैदान में
कोहरा है मैदान में
उड़कर आये इधर कबूतर
बैठे रोशनदान में
रहे खोजते वे सूरज को
सुबह-सुबह
पाला लटका हुआ पेड़ से
जगह-जगह
कोहरा है मैदान में
दिन चुस्की ले रहा चाय की
नुक्कड़ की दूकान में
आग तापते कुछ साये
दिख रहे उधर
घने धुंध में, लगता
तैर रहे हैं घर
कोहरा है मैदान में
एक-एक कर टपक रहे
चंपा के पत्ते लॉन में
कोहरे में सब कुछ
तिलिस्म-सा लगता है
पिंजरे में तोता भी
सोता-जगता है
कोहरा है मैदान में
डूबी हैं सारी आकृतियाँ
जैसे गहरे ध्यान में
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सब कुछ डूबा है कोहरे में
सब कुछ डूबा है कोहरे में
यानी जंगल, झील, हवाएँ- अँधियारा भी
अभी दिखी थी
अभी हुई ओझल पगडंडी
कहीं नहीं दिख रही
बड़े मन्दिर की झंडी
यहीं पास में था
मस्जिद का बूढ़ा गुंबद
उसके दीये का आखिर दम उजियारा भी
लुकाछिपी का जादू-सा
हर ओर हो गया
अभी इधर से दिखता बच्चा
किधर खो गया
अरे, छिप गया
किसी अलौकिक गहरी
घाटी में जाकर उगता तारा भी
उस कोने से झरने की
आहट आती है
वहीं भैरवी राग
सुबह छिपकर गाती है
दिखता सब कुछ सपने जैसा
यानी बस्ती
दूर पहाड़ी पर छज्जू का चौबारा भी
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दिन ठंडा है
दिन ठंडा है
आओ, तापें
जरा देर सूरज को चलकर
कमरे में बैठे-बैठे
हो रहे बर्फ़ हम
सँजो रहे हैं
दुनिया-भर के साँसों के ग़म
बाहर देखो
हुआ सुनहरा
धूप सेंककर चिड़िया का घर
ओस-नहाये
खिले फूल को छूकर तितली
अभी-अभी
खिड़की के आगे से है निकली
सँग कबूतरी के
बैठा है
पंख उठाये-हुए कबूतर
उधर घास पर ओस पी रही
चपल गिलहरी
देखो, कैसे
धूप पीठ पर उसके ठहरी
चलो
संग उसके हम बांचें
लिखे जोत के जो हैं आखर
– कुमार रवीन्द्र