गीत-गंगा
समय की माँग
बेड़ियाँ
कटने लगी हैं,
बंदिशें हटने लगीं।
अब हवा का
रुख है बदला,
बदलियाँ छँटने लगीं।
वर्जना की भेंट
अब चढ़ती
नहीं है सबल नारी,
वेदनाओं के
निलय में
आत्मनिर्भरता है भारी।
हो भले कमज़ोर
तन, मन
शक्तियाँ बढ़ने लगीं।
डर मिला है
घूँटियों में
लाज गुड़ियों
संग मिली,
झंझरी-टेसू
खेल संग, सीख
जीवन की मिली,
छोड़कर पीछे
इन्हें अब, समय
संग चलने लगीं।
हर अमावस
दीप बारी
आरती अपनी उतारी,
दुष्ट सम्मुख
क्रोध भरकर
कालिका का रूप धारी,
अब नहीं
अन्याय सहतीं
न्याय सिर धरने लगीं।
बेड़ियाँ कटने लगीं।।
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आजकल पंछी
आजकल पंछी नगर को
भूलने में लग गए हैं
नेह के बिरवा रहे ना
पोखरों ऊपर इमारत।
क्रोड़ में किसके बिताएँ
वे भला अब साँझ आरत।
अहं के विषमय पवन
को छोड़ने में लग गए हैं।
आजकल पंछी नगर को
भूलने में लग गए हैं।
दूर के देशों में मिलता
है बहुत दाना औ’ पानी।
ऑक्सीजन शुद्ध वायु
झूमकर मिलती सुहानी।
कोटरों के द्वार पर
उन्मुक्त पहरे लग गए हैं।
आजकल पंछी नगर को
भूलने में लग गए हैं।
छल-प्रपंचों की इबारत
लिख गई मन की सतह पर।
चित्र मिथ्या रच रहे हैं
सत्य के धुंधले फलक पर।
इसलिए घबरा नया
आकाश चुनने लग गए हैं।
आजकल पंछी नगर को
भूलने में लग गए हैं।
– डॉ. मंजू लता श्रीवास्तव