कविता-कानन
सत्योदय
मैं कोई पागल पथिक नही हूँ
मैं स्वयं की खोज में निकला हूँ
मैं जीवन का आद्यान्त ढूँढने निकला हूँ
किन्तु इनसे तो मेरे लक्ष्य कदापि पूर्ण न होंगे
यदि मैं दुनिया से भागकर
दूर किसी कन्दरा में जाकर
अकेले अपनी मुक्ति का अनुसंधान करूं
या फिर रहकर समाज में
गली-गली रटे-रटाये सत्य का प्रचार करूं
या खोल लूँ एक धर्म का ग्रन्थालय
और विवादित संवादो का व्यापार करूं
मैं नहीं चाहता ऐसा सत्योदय
जो सिमित रहे एक हृदय तक
मैं चाहता हूँ ऐसा ज्ञानोदय
रश्मियां जिसकी पहूँचे
हर घर आंगन तक
हे! दाता तेरे सारे वरदानों के एवज में
कल के सूर्योदय के साथ
मैं सर्वोदय चाहता हूँ
विधाता मैं कोई चमत्कार नहीं
सत्य के प्रत्यक्षीकरण का प्रामाणिक विधान चाहता हूँ
धर्मविज्ञान से एक सेतु बनाकर
सम्पूर्ण मानवता के साथ
मैं समस्त दु:खों के पार जाना चाहता हूँ
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सब कुछ भूल जाता है!
इतनी होड़, इतनी दौड़
इतनी भागमभाग, इतना शोर है
जिन्दगी के शहर में
इसकी आपाधापी में
इसकी व्यस्तता में
कि न चाहते हुए भी आदमी
आहिस्ता-आहिस्ता
हर रोज कुछ न कुछ भुल जाता है
माँ का असीम प्रेम,
बाप की उंगली,
भाई-बहनों का स्नेह,
दोस्तों के साथ खेला खेल,
किसी से जन्म-जन्मों का मेल
यहां तक कि
साल-दर-साल अपनी ही पुरानी होती शक्ल
अपना बचपन, अपनी जवानी
और आखिर में अपना बुढापा तक भूल जाता है
सारी आपा-धापियों से थक-हार कर
एक दिन वह इस तरह सो जाता है
कि जागना ही भूल जाता है
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दिया
हम तो दिए हैं
बुझना ही है हमको हर हाल में
किन्तु तब बुझने का कोई अफसोस नहीं होता
जब जलना किसी के काम आ जाता है
अंधेरों में गुम होता कोई मुसाफिर रस्ता पा जाता है
रात की स्याही से भयभीत कोई
हमारी रोशनी से साहस जुटा लेता है
दिवाली में मुडेरों पर सजकर
उत्सवों में महलों को जगमगाकर
यहां तक कि
देवालयों में निष्प्रयोजन
एक कतार में जलकर भी हमें
कभी उतनी खुशी नहीं होती
जितना आनन्द किसी जरूरतमंद के लिए
जलकर बुझ जाने में आता है
जैसे सारा जीवन ही अर्थपूर्ण हो जाता है।
– गोपेश आर शुक्ला