कविता-कानन
संस्कृति
आर्य संस्कृति के
धर्म की समिधा
अहिल्या, रेणुका, सीता, उर्मिला
और बेचारी सूर्पनखा
अपमानित, शंकनीय
प्रताड़ित, दंडनीय
परित्यकता
पुरूष वर्चस्व की
अनेक कलंकित
कारनामों के
लिखित दस्तावेज
ये धर्मग्रंथों की
काली गाथाएँ
लीलती रहीं
आधी आबादी को
ये बने रहे
हमारे
आदर्श पुरुष
अविवेकी, नृशंस, हत्यारे
व्यभिचार किया
पुरुष ने
पत्थर बनी अहिल्या
पुरुष के देखने मात्र से
सिर खंडित हुआ
रेणुका का
अग्नि में जलकर भी
सीता हुई
अपमानित, परित्यकता
जलती रही
उर्मिला
यौवन के पूरे काल तक
सूर्पनखा विकलांग बनी
आर्यसंस्कृति की
कटार से
मनोरोगी की
गाथाओं से भरे हुए
सारे धर्मग्रंथों को
आज चाहिए
माचिस, केरोसीन और
सूखी लकड़ियाँ
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औरत और खिड़की
शायद खिड़की और
औरत का रिश्ता
बहुत पुराना है
उतना ही
जितना औरत और
मर्द का
बचपन से जवानी तक
खिड़कियों से ताकना,
ससुराल में
खिड़की के पल्ले को
थोड़ा टेढ़ा कर झाँकना
खिड़कियों से
ताल-मेल बैठाती
ये औरतें
कब खिड़की से कूद
मांस और कसाईयों की
पगडंडी पर दौड़ पड़ी
पता ही नहीं चला
अपने वजूद की
तड़प के साथ
अपनी धरती
अपना आकाश पाने
इन पगडंडियों से ही तो जाना है
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निर्भया का पुनर्जन्म
बार-बार
आते-जाते मौसमों की तरह
पैदा होने वाली
अनेक निर्भया
भीड़ का मुद्दा बन
सड़कों की आवाज बनतीं
और फिर
गुम हो जातीं
प्रशासन, व्यवस्थाएँ
और कानूनी कागजों से
निकल दौड़ती
और फिर
कागजों में बन्द हो जाती
निर्भया पैदा होती है
होती रहेगी,
पुलिस दौड़ेगी,
कानून गरजेगा,
व्यवस्थाएँ बनेंगी,
पुलिस सो जायेगी,
कानून मौन होगा,
व्यवस्थाएँ शांत
और निर्भया
पैदा होती रहेंगी
– सुधा चौरसिया