कविताएँ
मैं निपट अकेला!
वो सबको मारेंगे
और कहेंगे कि उन्होंने जिसे मारा था
वो सांप, बिच्छू, जहरीले मच्छर थे
मैं मान लूँगा उनकी बात
धीरे-धीरे वो कुछ और लोगो को मारेंगे
और कहेंगे ये घुसपैठिये चूहे थे
जो कुतर रहे थे हमारी कालर
मैं फ़िर मान लूँगा
फ़िर कुछ महिलायें मार दी जायेंगी
वो कहेंगे कि
ये वेश्यायें थी
इनका होना, समाज के लिये घातक था
मैं फ़िर चुप रहूँगा!
फिर, वो मेरे साथी कवियों को मारेंगे
और मुझसे कहेंगे
ये लोकतंत्र के खिलाफ़ लिख रहे थे
इनका नहीं होना बहुत जरूरी था!
जब कोई नहीं होगा
तब मैं बैठकर सोचूंगा-
कहीं ये ‘सियासतन’ हत्यायें तो नहीं
फ़िर ये सोचकर
मैं ‘प्रेम कवितायें’ लिखना शुरू कर दूँगा कि
मैं ‘निपट अकेला कैसे लड़ पाऊँगा
उससे और उसके साथी भूरी कमीजों वाले फ़ौजी साथियों से!
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बच्चा नहीं लौटेगा!
दिन में कम-से-कम चार बार
उदास हो जायेगी माँ
पल्ला खटखटखटायेगा कोई कुत्ता
दीवार पर उतरी हुयी धूप में
‘भीगा हुआ कौआ’ आकर बैठ जायेगा
हीरामन सुग्गा अनायास कोई ‘रटा हुआ नाम’ बोल जायेगा
और
जब-जब बिल्ली दूध पी जायेगी
माँ बच्चे के लौट आने की कसक में भींग जायेगी
लेकिन, बच्चा नहीं लौटेगा
लौटेगा एक आदमी
कमाने गये हुए बच्चे अक्सर ‘आदमी’ बनकर लौटते हैं
– राज किशोर सिंह