कविता-कानन
शाम
शाम कुछ यूँ उतरी है
मेरे आँगन में
जैसे कोई मेघ उतरता है
सावन में
जैसे कोई रंग
हो प्रीत पावन में
जैसे मखमली चादर
ओढ़े कोई चाँद
सो रहा हो
जैसे सदियों से देखा
कोई ख़्वाब
मुकम्मल हो रहा हो
जैसे अलाप रहा हो
अंतर्मन कोई राग
जैसे खिल उठा हो
मरुथल का वीरान बाग़
जैसे अभी-अभी
मिला है आसमां धरा से
जैसे निकली है
कोई नदी
मरुधरा से
जैसे बजती हो
कोई बाँसुरी हौले-हौले
निर्जन वन में
कुछ ऐसे ही
शाम उतरी है
मेरे मन में।
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धोरों के पेड़
धोरों पर उगे पेड़
महज पेड़ नहीं होते
उनमें होता है
जीवन का सच
वे जानते हैं
अधूरेपन में जीना
नहीं है मुश्किल
उनके लिए
अकेले खड़ा रहना
अकेला रहने का अर्थ
यह नहीं है
कि उन्हें नहीं आता
औरों का दर्द बाँटना
वे बखूबी समझते हैं
हृदय की पीर
उन्होंने बुलाया है मुझे
सैंकड़ों बार अपने पास
और पढ़ी है
मेरी खामोशी
वे जानते हैं
कि उनका बदन काँटों भरा है
इसलिए नहीं लिखी जाती
उन पर कविताएँ
मगर वे यह भी जानते हैं
कि उनके भीतर
नेह का समंदर है
जो रेत के समंदर में मिलकर
लिखता है
अनगिनत अल्फ़ाज़
जिनमें होते हैं
बहुत-से कि़स्से-कहानियाँ
और महाकाव्य
जो पढ़े जाएँगे
बड़े चाव से
एक वक्त के बाद।
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मेरे रेगिस्तान की तरह
फिर-फिर लौट आता हूँ
तेरी ओर
खींच लेती है
तेरी याद
और घिर आती है
सावनी घटाएँ
मेरे सूने मन में
तमाम उलझनों के बाद
यहाँ आकर
सुलझ जाता हूँ
खुल जाती है
सारी गाँठें
बाहर कितना-कितना है
मगर सब तिनका-तिनका है
बिखरा-बिखरा है
भीतर जो भी है
कितना निखरा-निखरा है
ठीक ऐसे है
बाहर सारी दुनिया है
मगर भीतर तुम हो
मेरे रेगिस्तान की तरह
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रेगिस्तान का बसंत
बसंत
तुम्हारे आने का इंतजार
मुझे आज भी है
मगर जब देखता हूँ
रेगिस्तान में खड़ी
सूखी खेजड़ी
खेजड़ी के नीचे
भूख से व्याकुल
मीमियाते बकरी के बच्चे
सांगरी की आस में
गई बूढी माँ को
खाली हाथ लौटकर आते हुए
तो मुझे
संदेह होता है
तुम्हारे आगमन पर
बसंत
मैंने नहीं देखा आबू पर्वत
मैं नहीं जा सका हिमालय की ओर
मैंने नहीं देखी कश्मीर की वादियाँ भी
जहाँ तुम्हारे हर रोज़ होने को
मैं बचपन से पढ़ता-सुनता आया हूँ
मगर
प्यारे बसंत!
एक-दो दिन महीने तो
तुम आया करो
मेरे रेगिस्तान में
ताकि कुछ दिन
हरी हो सके खेजड़ी,
मिट सके बकरी के
बच्चे की भूख
और
माँ को भी न लौटना पड़े
खाली हाथ।
– चन्द्रभान विश्नोई