कविता-कानन
वर्षगाँठ
‘सुधिया’ को
पैदा हुए कई वर्ष हो गये
पर वर्षगाँठ न पड़ी एक भी
वो पूछती है माँ से बार-बार
माँ कहती है
कि ठीक ठीक याद नहीं कब
शायद शुक था
नई नई सनीचर
‘बुधिया’ तब साल भर की थी
साँझ का बेरा था
बड़ी गरमी थी
बादर उमड़ घुमड़ रहे थे
पर बरस नाही रहे थे
मवेसी चर के आ गये थे
दुवारे-दुवारे घूर बरा गया था
घरे-घरे दिया जर गया था
तभी पीर उठी थी
महरिन काकी आयी थीं
औ, खाए पीये के बेरा तक तू हो गयी थी।
माँ! मेरी उमर कितनी है?
‘सुधिया’ ने पूछा
माँ ने कहा अभी का उमर भयी है
‘निधिया’ से दू ही साल तो बड़ी हो
अरे मझली फूआ का लइका औ तुम
एके जोड़ी पाड़ी के तो हो
‘सुधिया’ झल्लाई, जोर से चिल्लाई
माँ! तारीख कौन-सी थी?
माह और वर्ष क्या था?
मुझे भी मेरी वर्षगाँठ मनानी है
नये कपड़े पहनने हैं
और मिठाई खानी है
माँ ने ‘सुधिया’ को समझाया
बिटिया! हम कितना तारीख याद रखबैं
तुम्हरा?
कि तुम्हरी दिदिया का?
तुम्हरा भइया का?
कि तुम्हरी बहिनी का?
एही नाले हमारे यहाँ
बस बरष होता है
बरषगाँठ नाही होती
आ नवा कपड़ा पहनना है
मिठाई खानी है
तो बियह देगे दुई साल में
तब पहनना नवा कपड़ा
डोली में धई देंगे दू झापी लड्डू
मिठाई खाने के लिए
वर्षगाँठ की का जरूरत!!
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शहंशाह का आगमन
शहर में गहमा-गहमी है
सुना है शहंशाह आ रहे हैं
हैं चौक चौराहे चाक चौबंद
लगने लगे हैं टाट में मखमली पैबंद
सड़कें बुहारी जा रही हैं
मलिन बस्तियाँ उजाड़ी जा रही हैं
हो रहा चहुँओर सौन्दर्यीकरण, पर
बिगड़ रहा
किसी दीन के जीवन का समीकरण।
शहंशाह की नजर जहाँ तक जाएगी
वहाँ तक
बस खुशी ही नजर आएगी
फुटपाथों से अवैध अतिक्रमण हटाए जा रहे हैं
जहाँ हाथ थक रहे, वहाँ बुल्डोजर बुलाए जा रहे हैं
बुल्डोजर गिरा रहा है एक बदसूरत सी दीवार
तबाह हो रहा किसी का खूबसूरत संसार
टूटी दीवार से नजर आ रहा है
एक टूटा चूल्हा, एक पिचकी तसली
एक फूटी हड़िया, एक खाली थाली
हाँ दीवार के पीछे कोई है
जो गठिया रहा है
मैले से टुकड़े में
बची खुची, टूटी फूटी
एक वैध गृहस्थी।
निकलना है सफर पे
तलाशनी है जमीन
किसी सड़क के किनारे
किसी नाले के पास
करना है अवैध अतिक्रमण
पिचकी तसली,
फूटी हड़िया के साथ
बसानी है नये सिरे से
एक वैध गृहस्थी
शहंशाह के पुन: आगमन तक
– निशा राय