कविता-कानन
लकड़ी का बयान
वे तो जाने-पहचाने शातिर थे, जो फेंक गये आग
मैंने नहीं जलाया कभी किसी का घर
बेझिझक करें तफ़्तीश
किसी भी आम आदमी से
नोन-तेल कहते ही झट से लेगा मेरा नाम
पूछ लें-
घर से हँकाले गये गठिया-ग्रस्त बूढ़ों से
कौन है उनका एकमात्र सहारा
घिसा जब भी किसी ने
महका वही चंदन-सा
टेके रखा छप्पर-छानी कंधों पर
बंद करता रहा भीतर
वनैले जानवर से बचाने
मूसल बनकर देता रहा साथ माँओं का
भौंरा घोड़ा बनकर उदास बच्चों का
बचाता रहा साबुत कुपित समुद्र से
मेरी नहीं किसी से ज़ाती-दुश्मनी
फिर भी उस बढ़ई को देखते ही
खौल उठता है मेरा ख़ून
जो बनाने के बजाय पीढ़ा
अड़ा हुआ है मुझे कुर्सी बनाने में
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कारख़ाना खुलने पर
देखते-देखते खेत सिकुड़ गये
सिकुड़ गये धान कटैय्या हाथ
देखते-देखते हँसी सिकुड़ गयी
लकीरों से बिंध गयी चौड़ी माथ
पंछी सिकुड़े देखते-देखते
पेड़ से तने, तने से फूल
देखते-देखते हवा सिकुड़ गयी
साँसें रोकती जहरीली धूल
देखते-देखते बस्ती उठ गयी
उठ गये कहाँ वो सारे लोग
सिर्फ़ मशीनें चीख रही हैं
उन्नति का कैसा यह रोग
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सिर्फ़ जंगल था
नदी पहाड़ न थी
पहाड़ नदी नहीं था
पहाड़ और नदी के बीच आदमी नहीं था
आदमी के आसपास न आदमी थे न कोई बस्ती
आदमी जंगल में था
जंगल में पेड़-पौधे नहीं थे, कोयल-पपीहे नहीं थे
ज़मीन नहीं थी, आकाश भी नहीं था
आदमी था सिर्फ़
या
सिर्फ़ जंगल था आदमी में
और कुछ भी नहीं
सिर्फ़ मैं
सिर्फ़ मैंने
सिर्फ़ मेरा
सिर्फ़ मेरे लिए
सिर्फ़ मुझे
सिर्फ़ मुझसे
सिर्फ़ मुझ पर
और कुछ भी नहीं!
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स्त्री
एक घर हूँ मैं
जिसके बहुत सारे झरोखे खुले नहीं हैं
एक पंछी हूँ मैं
जिसने सभी गीत गाये नही हैं
एक नदी हूँ मैं
जिसे पहुँचना है कुछ और दूर-दूर
एक कविता हूँ मैं
जिसके बहुत सारे अर्थ खुलने बाक़ी हैं
और ज़रूरी है क्योंकि
वही
बचाये रखेगी दुनिया में बची-खुची संवेदना
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बेटियाँ
आँगन में
चहकती हुईं गौरेया
देखते-ही-देखते पहाड़ हो गईं
आख़िर एक दिन उन्हें
घोंसले से दूर कहीं खदेड़ दिया गया
लेकिन गईं कहाँ वे ढीठ!
अब वे नदी की तरह उतरती रहती हैं
उदास आँखों में
पारी-पारी से।
– जयप्रकाश मानस