कविता-कानन
राम राम सत है
किसी को मरते नहीं देखा
हाँ, अंतिम यात्रा कई देखी
रसोई से कई बार सुना हुआ था
राम राम सत है
चार आदमियों के कंधों पर
सूत से बंधे शरीर पर बिखरें फूल और गुलाल
आटे से सने हाथ झाड़कर प्रणाम कर लिया करती थी
एक सेकंड का मसान वैरागय
बुलबुले की भांति बनता और क्षीण हो जाता
लेकिन मैंने देखा था
प्रेम का अनायास मर जाना
स्मृतियों की अकाल मृत्यु
मुझे नहीं याद है
आखरी बार उसका चुम्बन
आखरी बार
हाथ छोड़ना देह छोड़ने जैसा ही तो था
लेकिन राम नहीं याद आए थे उस वक्त
मुझे याद नहीं आ रहा
उसका लिखा कोई ख़त
अंतिम प्रिय का संबोधन
सारे अंतिम शब्दों का प्रयोग अंतिम समय ही होना चाहिए
मैं आखरी बार कंधो को ढीला छोड़कर रोना चाहती हूँ
कोई कोरस में गा सकता है क्या?
राम राम सत है
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चंद्रमा को चिट्ठी
मेरे अतीत के सारे दस्तावेज़
अंतर्देशीय लिफ़ाफ़े में लिखकर
चंद्रमा को पोस्ट कर आयी
मुझे अनुमान था
शशि की शीतलता से
हलाहल का प्रकोप
निश्चय ही क्षीण हो जाएगा
अलबत्ता कुछ हुआ नहीं
चिट्ठी तारामंडल की प्रदीक्षणा कर
पुनः लौटा दी गयी
शायद घर पर कोई नहीं होगा
एक दफ़ा फिर
उस बैरंग लिफाफे को
आग लगाकर
गुलेल से चाँद पर सटीक निशाना लगाया
और एक दिन
चाँद को ग्रहण लग गया
खिड़की से देख रही थी
कालिख़ पुता हुआ चाँद
मुझे देखकर रोता था
अब चिट्ठियों को पोस्ट करना बंद दिया है
गिलौरी बनाकर निगल लेती हूँ
ग्रहण स्नान दान पूर्णिमा
आत्मसंवरण से
आत्मशुद्धि हेतु
स्वयं को ही समर्पित हैं।
– सारिका पारीक जुवि