गीत-गंगा
रामायण प्रसंगों पर आधारित कुछ पौराणिक गीत
महाराज दशरथ का पुत्र विलाप
राम नाम जपते हैं दशरथ, कर विलाप भगवंत!
बहुत दु:खद है जीवन इनका, बहुत दुखद है अंत।
भले अवध की साँसों में बस राम नाम अंकित है,
किंतु राम वन जाने से हर अधर यहाँ कंपित है।
लगे प्रजा के जीवन से ज्यों,
वापस गया बसंत।
तुम सुमंत जाओ, तीनों को यह संदेश सुनाओ,
बहुत दुखी हैं तात तुम्हारे, वापस घर आ जाओ।
मात्र राम उपचार अकेले,
नहीं वैद्य या संत।
अनजाने ही एक पाप ने ख़ुशियों को हर डाला,
अंतस की पीड़ा ने दशरथ को छलनी कर डाला।
अंतिम क्षण में श्रवण मृत्यु का,
दृश्य हुआ जीवंत।
************************
श्री राम को वन से वापस लाने के लिए भरत के साथ अवधपुरी का वन गमन
पर्णकुटी में राजतिलक कर,
राजमुकुट पहनाने।
अवधपुरी से चले भरत जी,
प्रभु को वापस लाने।
तीनों माता साथ चली हैं; गुरुजन साथ चले हैं।
और अवध के वासी, हाथों में ले हाथ चले हैं।।
राजन के जाने की पीड़ा,
राघव को बतलाने।
मिले निषादों के राजा गुह संदेहों को लेकर।
मगर भरत का प्रेम देखकर क्षमा माँगते रोकर।
राम दशा सुन ख़ुद को कोसा,
भरत लगे पछताने।
मैं पापी हूँ भ्रात! राम से कहते जाते हैं।
हाथ जोड़; लें क्षमा, नयन से आँसू आते हैं।
राम भावविह्वल हो दौड़े,
उनको गले लगाने।
कुशलक्षेम पूछा माता से, प्रजा और गुरुजन से।
कहा भरत! तुम अवध संभालो, अपने पूरे मन से।
मुझे मात को दिया वचन भी,
रखना है सिरहाने।
चरण पादुका लेकर वापस चले अयोध्या नगरी।
और साथ में पावन; राघव! चरण धूलि की गठरी।
भरत राम आशीष समेटे,
बढ़ते ‘धर्म’ निभाने।
************************
भरत का वन गमन
धर संन्यासी भेष भरत भी,
करते वन प्रस्थान।
राम तुम्हारी चरण पादुका के सम्मुख,
फूट-फूट कर भरत कह रहे दारुण दुख।
माता के छल को भी भैया,
देते हैं सम्मान।
महलों में रेशमी बिछौने होते हैं,
भैया-भाभी घास-फूस पर सोते हैं।
सोच-सोच यह; त्याग दिए सब,
महलों के वरदान।
कंदमूल फल खाकर वन में जी लूँगा,
भैया का आशीष; सोम-सा, पी लूँगा।
कहें किया है मैंने कितना,
अग्रज का अपमान।
कैकेयी को ख़ूब कोसते जाते हैं।
ख़ुद को पापी मान नित्य पछताते हैं।
‘हरि’ से पूछें हाथ जोड़कर,
समुचित दंड-विधान।
अवध धरा के रामचंद्र ही भूपति हैं,
हम सेवक हैं, और राम के संतति हैं।
कहें अवध का रामचंद्र से,
ही होगा उत्थान!
************************
केवट प्रसंग
राम खड़े हैं भवसागर में,
केवट तुम ही पार लगाओ।
बिना तुम्हारे वचन अधूरे,
यज्ञों का उपसर्ग अधूरा।
बिना तुम्हारे साथी केवट,
मंज़िल का हर सर्ग अधूरा।
शांत नदी की गहरी हलचल,
आकर तुम इनको दिखलाओ।
केवट तुम ही पार लगाओ।
बिना तुम्हारे विस्मृत राहें,
सही-ग़लत चुनना है मुश्किल।
बिना तुम्हारे निर्णय लेकर,
शून्य ‘राम’ को होगा हासिल।
राम साधना के भागी बन,
तुम भी थोड़ा पुण्य कमाओ।
केवट तुम ही पार लगाओ।
लंका की पहली सीढ़ी हो,
रामायण उद्घोषक तुम हो।
रघुवर की आशा के दीपक,
प्रीति भाव के पोषक तुम हो।
अपने कर्तव्यों को केवट,
चप्पू खेकर चलो निभाओ।
************************
रानी कौशल्या का पुत्र विलाप
कौशल्या के मुख पर रहता,
बेटे का ही नाम!
हर पल यही कहा करती हैं,
आता होगा राम!
द्वार पर आँखें टिका दिनमान ढलता,
रात्रि में दुःस्वप्न आँखों में टहलता।
पुत्र आस को नहीं मिला है,
अब तक सहज विराम।
अब नहीं है मोह महलों के सुखों से,
हो रहा परिचय निरंतर ही दुखों से।
इस वियोग में माता का हरि!
क्या होगा परिणाम।
गिनतियों में कट रहे हैं साल सारे,
सिसकियों ने कर दिया बेहाल प्यारे।
सुधियों से बतलाने का ही,
बचा अकेला काम।
************************
शबरी प्रसंग
सुनी अंततः परमेश्वर ने,
माँ शबरी की टेर।
राम-लखन को खिला रही हैं,
मीठे-मीठे बेर।
दरस राम का पाने को निज कुटिया में,
एक भीलनी बरसों से करबद्ध खड़ी।
चुन लाती है कंदमूल फल वन में से,
और बिछाती नित्य मार्ग पर पुष्प लड़ी।
भले राम के आने में यों,
हुई तनिक-सी देर।
हाय! समय था कठिन, प्रतीक्षा थी लंबी,
फिर भी माँ का सम्बल ढहता दिखा नहीं।
हँसी और करुणा; जग की सहने पर भी,
एक अश्रु माँ के नयनों से रिसा नहीं।
आशा, विचलन और मर्म को,
समझी नित्य मुँडेर।
चख कर रखतीं बेर टोकरी में, कहतीं;
ग्रहण करें प्रभु! फल अतिशय ही मधुरिम है।
धन्य हुई मैं आज आपके आने से,
प्रभु का भक्ति उवाच; कामना अंतिम है।
राम दीप से चिर वियोग का,
आतंकित अंधेर।
************************
रावण वध के उपरांत श्री राम का अयोध्या में स्वागत
मर्यादापुरुषोत्तम भगवन!
राम आपका स्वागत है।
जहाँ आपके आ जाने से,
‘त्रेतायुग’ का उद्धार हुआ।
जहाँ कर्म का और धर्म का,
प्रभु! विश्व-व्याप्त विस्तार हुआ।
वहाँ आज भी हर कण-कण में,
जय श्री राम समागत है।
जहाँ आपके वचन हमेशा,
जन-मन के आदर्श रहे हैं,
जहाँ आपके समुचित निर्णय,
सौष्ठव का संदर्श रहे हैं।
वहाँ राम की चरितबखानी,
मानस में भाषागत है।
जहाँ मात सीता रघुवर की,
अनुगामी बन साथ चली थीं।
जहाँ मान-मर्यादाएँ भी,
भरत त्याग को देख पली थीं।
वहाँ त्याग अरु प्रेम, प्रतिष्ठा,
सदियों से वंशागत है।
जहाँ आपके तप के सम्मुख,
सब देव हुए नतमस्तक थे।
जहाँ ब्रह्म ‘रघुकुल’ के साथी,
नारद जी बने प्रवर्तक थे।
वहाँ प्रतीक्षा में तुलसीदल,
अब तक खड़ा क्रमागत है।
– शिवम खेरवार