कविता-कानन
रात की चुप्पी
रात की चुप्पी
शौकिया नहीं होती
जागते हुए खामोश रहना
कितना मुश्किल होता है
यह हम नहीं
रात जानती है
हम सो जाते हैं
लेकिन रात जागती है
हाँ,
रात जागती है
क्योंकि रात
जानती है
हमारे सपनों की कीमत
रात की चुप्पी
शौकिया नहीं होती
उसमें होती है
दिनभर की थकान,
हमारी तकलीफें,
हमारी घुटन,
हमारी बेचैनी,
हमारी मजबूरी,
हमारे अंतर्द्वद्व
जिसे लेकर रात
जागती है
कितना मुश्किल होता है
इतनी सारी जिम्मेदारियों के साथ
रात का जगना
वो भी अकेले।
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चिनगारी भर
दूर कहीं
बहुत दूर हूँ
हाँ,
उस पार सुदूर हूँ
जहाँ ढलता है सूरज
जहाँ होती है शाम
जहाँ हो रहा हो अँधेरा
धीरे-धीरे
हाँ,
वहीं हूँ
एक चिनगारी भर
अगर चाह
जलने की ही है
तो आओ! तुम भी
मिलकर जलते हैं
उजाले के लिए।
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ज़िन्दगी
तमाम दुश्वारियाँ
उलझन, ऊहापोह
फिर भी अगर है
चेहरे पर खुशी
तो है ज़िन्दगी
अनुकूल कुछ भी नहीं
साथ कोई भी नहीं
फिर भी अगर है
होंठों पर हँसी
तो है ज़िन्दगी
धूमिल-सी उम्मीदें
अधूरी-सी रातों की नींदें
अनसुलझे सवाल
बेतुके जवाब
फिर भी अगर है
दूर मायूसी
तो है ज़िन्दगी
रात अँधेरी
धूप घनेरी
राहें वीरान
चहुंओर सुनसान
फिर भी अगर है
पस्त खामोशी
तो है ज़िन्दगी।
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कुछ बुन रहा हूँ
कुछ बुन रहा हूँ प्रतिपल
इधर से उधर जाती हवाओं में
माँ के अंतर्मन से निकली दुआओं में
रेगिस्तान के सुनसान में
टीलों की रेत की तरह
बरसों से मेह की राह देखते
खेत की तरह
विपदाओं में
ख़ुद को और तराश कर
अपना हृदय आकाश कर
कुछ बुन रहा हूँ
खामोशियों के दायरे तोड़कर
रंग कुछ नये जोड़कर
अनर्गल को
बस यहीं छोड़कर
कुछ बुन रहा हूँ।
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सर्दियों की धूप
तू धूप है सर्दियों की
तेरा स्पर्श सुहाता है मुझे
दिनभर
तेरे आने से खिल जाता हूँ
देर तक
तेरे उपरान्त
मुझे नहीं चाहिए
छाँव ज़िन्दगी की
तेरे होने से
मैं होता हूँ स्वयं में पूर्ण
तेरे होने से
होता है अर्थ मेरा
फिर मुझे नहीं रहती चेष्टा
विराट की।
– चन्द्रभान विश्नोई