कविताएँ
रक्त-बीज
एक आदमखोर
व्यवस्था के पंजे से
निसृत रक्त-बीज ने
गिरकर कहर ढा दिया।
जब भी कहीं
गिरती है मानव की
रक्त-बूंद,
टपकती है अस्मिता
सहनशीलता कभी आड़े नहीं आती,
होता है शोषण मानवता का।
आदमीयत चित्कार उठती है
व्यवस्था के विरुद्ध
उठ खड़ी होती हैं
कितनी ही पुरज़ोर
मानव आवाज़ें।
दम तोड़ता है
अहसास,
विश्वास,
तिक्तता ज़हर घोलती है
और वाकया
बे-नक़ाब होता है।
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अनबांचे पृष्ठ
समय के
अनबांचे पृष्ठ
आज खुल रहे हैं
कुछ यादों के महकते साये में
पिरोए हुए हैं
कुछ गहन पीड़ा के
लबालब सैलाब हैं
स्मृति में बांध रही हूँ
धीरे-धीरे
उन अलिखित पृष्ठों के
शब्द-निशब्दों को
अन्तर-मतान्तरों को
वादों-प्रतिवादों को
सीमा की
घनघोर घटाओं को
जीवन के उतार-चढ़ावों को
उजले-धुँधले
कैनवासी प्रश्नों को
उन अनसुलझे सवालों को
जीत को हार को
दुविधा की प्रतिक्षा को।
समय का प्रहरी
जागता रहा है
हर पल
हर समय
बीता युग
याद दिलाता है
हर क्षण को
जो भोगा था
भीगा था,
स्मृति पटल पर
गहरे अंकित था।
अब समय के मानदण्ड
बदल गए
लेकिन फिर भी
अनबांचे पृष्ठ आज भी
तरोताज़ा हैं
खुल रहे हैं।
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नव निर्माण
हाथों से होगा
नव निर्माण
बनेगा सृजन नया आलेख
कहीं दुबकी होगी
कोई कविता
किसी क्षणिका का
न ह़ोगा विराम
चलता रहेगा
निर्माण पथ पर
कलम का कारवां
न बाधित होगी
कोई गीता,
कर्म का अर्जुन पुकारता है
कठिन नहीं, केशव की जीत
समर्पण रीता न होगा
फिर देंगे उपदेश
कर्म का वाचक होगा संदेश
नहीं कोई शब्द व्यर्थ जाएगा
शताब्दी का शेष
अर्थ नहीं होगा अशेष,
शेष जीवन होगा पाथेय
बनेगा लक्ष्य हमारा संविधान
– प्रतिभा पुरोहित