मुझे प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती
बसंत के लिए महीनों
मेरी बिटिया जादू कहकर
जब-जब खोलती है मुट्ठी
घर के पोर-पोर में खिल जाते हैं
बे-मौसम ही कई गुलाब
मेरे पिता जब कभी भी होते हैं
मायूस, उदास, दुखी और अबोले
एक पतझड़ आकर ढाँप लेता है
हमारे उन दिनों और रातों को
बाट नहीं जोहनी होती मुझे सावन के लिए
गर्मियों के चले जाने की
मेरी माँ की आँखों में इतना पानी है
कि बरस कर गीला कर देतीं हैं
हमारे स्नेह, सुख-दुख या स्मृति का हर पल
जेठ-अषाढ़ या किसी भी महीने में
एक माघ बिछ जाता है बिस्तर पर
जब अपना ताप समेटकर
जुटी रहती है कामों में मेरी पत्नी
मेरे सो जाने तक
जाने-अंजाने में मिली उपेक्षा
या ग़लत बयानी के प्रतिकार में
पसरी ठंड सबसे बुरी होती है
पर ज़रूरी भी
सारे मौसम मेरे इर्द-गिर्द चलते हैं दबे पाँव
हर बार उन्हें प्रकट होने के लिए
सूरज के चारों ओर घूम रही पृथ्वी की स्थिति की ही नहीं
मेरे लोगों की ज़िंदगी के रंग की दरकार होती है।
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बिछोह
नदी और बुआ
दोनों थीं एक जैसी
सावन में ही हमारे गाँव आतीं थीं
मंडराती थीं, बलखाती थीं
बह-बह जाती थीं
गाँव, घर, खेत, खलिहान, सिवान, दलान में
बुआ झूलती थी झूला
और गाती थी आशीषों भरे गीत
नदी भरती थी मिट्टी में प्राण
जैसे निभा रही हो रस्म
मना रही हो रीत
दोनों लौट जाती थीं
जब जाते थे कुछ दिन बीत
इधर हम शहर में बस गये
फिर बूआ गाँव में क्यों आती
वो रही भी नहीं
एक दिन बता गई कोई पाती
पता नहीं क्यों
बुआ जब-जब याद आई
याद आई उसके साथ ही आने वाली
अपने गाँव की वो बरसाती नदी
जिसे कहते थे हम अकड़ारी
और जो बरखा बाद
सिमटते-सिमटते हो जाती थी
विलीन खुद में ही
दादी कहा भी करती थी-
‘लड़की और नदी दोनों सावन में
आतीं हैं नइहर
और अपने मन से जीती हैं खुद को’
मैंने सोचा था
‘इस बार बुआ न सही
नइहर आई उस नदी को देखूँगा’
पर हाय ये क्या
जब मैं गाँव पहुँचा
नदी नहीं थी गाँव के बाहर
कहाँ से आती सावन में
ओह! बुआ तुम और नदी
दोनों साथ चली गयीं क्या!
क्या हमारे गाँव छोड़ जाने से
इतना नाराज़ थीं
तुम दोनों!
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सबसे बढ़कर
फूलों की नहीं
न ही किसी इत्र की
सबसे अच्छी गंध होती है
स्नेह की
दूरी और समय के फासले में भी
यह रहती है उतनी ही सिक्त होकर
सबसे अच्छी पुकार होती है
जन्मभूमि की
उसके दरिया, पहाड़, खेत, घर, लोग, सब
ख़त लिखते रहते हैं
परदेश गये अपने को
जिसे बाँचती हैं मिलकर
कई उनींदी रातें
सबसे बड़ा दुख है
अपनी ही आँखों से ओझल होते देखना
उन लोगों को
जो कभी रोशनी बनकर रहें हों हमारे
उनके पीछे का अँधेरा
जाता नहीं किसी भी नये दीपक से
सबसे बड़ा पछतावा होता है
बचपन के किसी ऐसे दोस्त का
बरसों बाद मिल जाना
जिसे मिलने के सपने आते रहें हों रोज
और वो मिला हो किसी ठंडे बर्फ-सा
छूटता हुआ हाथ से
सबसे सुंदर होता है
वो प्रेमी
जो अपनी प्रेमिका की डोली को देते हुए कांधा
निकलने नहीं देता
अपने अंदर के तूफान को
उसके दूल्हे, बाराती, घराती किसी के भी सामने।
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मैदान का आदमी
मैं मैदान का आदमी हूँ
आश्चर्य के अधिशेष से भरा हुआ
पहाड़ों को देखकर मेरी आँखें फटी रह जाती हैं
और सर उठा का उठा
मैं समझ ही नहीं पाता कि कैसे
सामंजस्य बिठाऊं उत्तंग शीर्षों से
विस्तृत रेगिस्तान देखकर तो मेरा हृदय
फैलकर आ जाता है मेरे सीने से बाहर
और फिर अपने छोटेपन के एहसास से
मैं रेत की तरह भुरभुरा कर गिरने लगता हूँ
अपनी ही मुट्ठी से
समुद्र जो मुझे बहुत भाते हैं चित्रों में
देख लूँ तो हरहराने ही लगता हूँ
उसकी लहरें कुरेदने लगती हैं अंतस
और डूब जाता हूँ अंदर के ही ज्वार भाटा में
समतल में पला बढ़ा मेरा मन
पहाड़ जैसी ऊँचाई और समुद्र-सी गहराई की
कल्पना भी नहीं करता
उसे रेगिस्तान जैसे सूने विस्तार में नहीं
अपने सघन बसावट के संकरेपन की आदत है
मैं मैदान का आदमी हूँ
समतल हैं मेरे सपने
समतल हैं मेरी इच्छाएँ
समतल है मेरा जीवन
समतल ही हैं मेरी आशाएँ
मुझे चढ़ने में हिचकिचाहट
और गिरने में डर लगता है
फैलाव देखकर मैं
अपने सीमित दायरे में और सिमट जाता हूँ।
– आलोक कुमार मिश्रा