कविता-कानन
मोहर
बनना तो मैं
जुगनू, पाखी
और वो तितली भी चाहती थी
पर उस दहलीज़ को छूते ही
‘स्त्री’ बना दी गयी
वही रंगत
वही रौशनी
वही मन
वही उड़ान
सब कुछ आज भी
तुम्हारा ही है मेरे पास
पर मोहर लगा हुआ
सुनो!
तुम्हारे परों पर भी
है कोई निशान स्त्री वाला?
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मैं अपने साये में खड़ी हूँ
इक उम्र से मैं अपने साये में खड़ी हूँ
तुम चाँद उकेर लो या सूरज
क्या फ़र्क पड़ता है?
बस वो खुला आसमान
आधा ही सही
रहने दो मुझ पर
देखो!
कुछ रंग अजनबी
कुछ लोग बेगाने
कुछ बातें अनकही
कुछ सुर अनजाने
बढ़ रहे हैं मेरी तरफ
मेरी उस रोशनी को चखने के लिए
जिसके साये में मैं
इक उम्र से खड़ी हूँ
बिना सूरज
बिना चाँद
बिना तुम्हारे
मेरे साये अब छाप हैं मेरी
उस आधे खुले आसमान के
ठीक नीचे ही सही
– कल्पना पांडेय